वेद- वेद शब्द विद् धातु से बना है, जिसका अर्थ है- ज्ञान।
वेदों को अपौरूषेय, श्रुति तथा संहिता भी कहा जाता है।
- अपौरूषेय- वेदों को ईश्वरीय रचना माना जाता है, अतः इन्हें अपौरूषेय कहते हैं।
- श्रुति- वैदिक सभ्यता के लोगों के पास लिपि का अभाव था अतः सदियों तक वेद गुरु-शिष्य की बोलने-सुनने की परम्परा में अस्तित्व में रहे, अतः इन्हें श्रुति कहा गया।
- संहिता- लिपि के अविष्कार के बाद विभिन्न क्षेत्रों से वैदिक ज्ञान को संकलित किया गया, अतः वेदों को संहिता भी कहते है।
- वैदिक सभ्यता एक ग्रामीण सभ्यता थी।
- वैदिक सभ्यता के लोग आर्य थे।
- इन आर्यो के मूल-निवास स्थान के संदर्भ में अनेक मत है।
प्रमुख मत-
- बाल गंगाधर तिलक- उत्तरी ध्रुव प्रदेश (आर्कटिक प्रदेश) पुस्तक- ‘दी आर्कटिक होम ऑफ आर्यन‘
- दयानन्द सरस्वती- तिब्बत प्रदेश
- अविनाशचन्द्र व सम्पूर्णानन्द- सप्त सैन्धव प्रदेश (सिन्धु और उसकी सहायक सात नदियाँ)
- गाइल्स- डेन्यूब नदी घाटी प्रदेश
- गार्डन चाइल्ड- दक्षिणी रूस
- राजबली पाण्डेय- मध्य प्रदेश
- मैक्समूलर- मध्य एशिया
- गंगानाथ झा- ब्रह्यर्षि प्रदेश
इन सभी मतों में से मैक्समूलर (जर्मनी) के मत को स्वीकार किया जाता है प्रमाण में तौर पर इन्होंने तुर्की क्षेत्र में 1400 ई.पू. से सम्बन्धित बोगजकोई अभिलेख का उदाहरण दिया है। जिसमें 4 देवताओं के नाम- इन्द्र, वरूण, मित्र, नासित्य है जो वैदिक सभ्यता में भारत में भी पूजनीय रहे।

- ऋग्वैदिक काल (1500 ई.पू. – 1000 ई.पू.)
- उत्तरवैदिक काल (1000ई.पू. – 600ई.पू.)
ऋग्वैदिक काल (1500 ई.पू. – 1000 ई.पू.) Rig Vedic Kaal
- ऋग्वेद को विश्व की प्राचीनतम रचना माना जाता है। इसकी भाषा वैदिक संस्कृत थी।
- ऋग्वेद में 10 मण्डल, और 1028 सूक्त है। जिनमें विभिन्न देवताओं की स्तुतियाँ प्राप्त होती है।
- ऋग्वेद का दूसरे से सातवाँ मण्डल प्राचीनतम माना जाता है। जबकि प्रथम, अष्टम, नवम् तथा दशम् मण्डल अपेक्षाकृत नये माने जाते है।
- ऋग्वेद का प्रथम श्लोक मंत्र अग्नि देवता को समर्पित है। जिसके ऋषि अंगिरा है।
- गायत्री मंत्र का उल्लेख ऋग्वेद के तीसरे मण्डल में है, जिसमें सवितृ की पूजा की गयी है। इसकी रचना विश्वामित्र ने की।
- ऋग्वेद के चतुर्थ मण्डल में कृषि सम्बन्धी प्रक्रियाओं की जानकारी प्राप्त होती है।
- ऋग्वेद के सातवें मण्डल में रावी नदी के तट पर लडे़ गये। दशराज्ञ युद्ध (दश राजाओं का युद्ध) की जानकारी प्राप्त होती है।
- भरतजन के राजा सुदास ने विश्वामित्र के स्थान पर वशिष्ट को अपना पुरोहित बनाया।
- अतः नाराज होकर विश्वामित्र ने पुरूजन के नेतृत्व में दश राजाओं का एक संगठन सुदास के विरोध में बनाया। किन्तु इस युद्ध में सुदास विजित हुआ। सुदास ने दस राजाओं के संगठन को रावी नदी के तट पर हराया।
- ऋग्वेद के 9वें मण्डल में सोम देवता व सोम रस की स्तुति प्राप्त होती है। सोमरस को अमृत तुल्य कहा गया है।
- ऋग्वेद के दसवें मण्डल में पुरूष सूक्त में पहली बार 4 वर्णो के नाम प्राप्त होते है- ब्राह्यण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र।
- पुरुष सूक्त के अनुसार विराट पुरुष (ईश्वर) के मुख से ब्राह्यण की उत्पत्ति, भुजाओं से क्षत्रिय की उत्पत्ति, उरु प्रदेश (जाँघों) से वैश्य की उत्पत्ति तथा पैरों से शूद्र की उत्पत्ति हुई है।
महत्वपूर्ण बिंदु-
- ऋग्वैदिक काल का मुख्य व्यवसाय पशुपालन था।
- ऋग्वैदिक आर्य कबीलों में रहते थे। जिन्हें जन कहा गया।
- ऋग्वैदिक काल का समाज पितृसत्तात्मक था। ऋग्वैदिक आर्य लोहे से परिचित थे।
सामाजिक व्यवस्था-
- पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं की स्थिति सम्मानजनक थी। विभिन्न विदुषियों के नाम प्राप्त होते है। अपाला, घोषा, लोपामुद्रा, निवावरी, सिकता, विश्ववारा, आत्रेयी, शची, इन्द्राणी।
- ऋग्वैदिक समाज में वर्णव्यवस्था का आधार कर्म था।
ऋग्वैदिक काल में दो प्रकार के विवाह प्रचलन में थे।
- अनुलोम विवाह
- प्रतिलोम विवाह
- अनुलोम विवाह- किसी वर्ण के पुरुष द्वारा अपने समान वर्ण अथवा वर्ण अथवा अपने से निम्न वर्ण की कन्या से विवाह अनुलोम कहलाता था। इसे सामाजिक स्वीकृति प्राप्त थी।
- प्रतिलोम विवाह- उच्च वर्ग की महिला तथा निम्न वर्ण के पुरुष का विवाह, जिसे समाज की स्वीकृति प्राप्त नही थी। इसके अलावा नियोग की प्रथा प्रचलन मे थी।
आर्थिक स्थिति-
- पशुपालन मुख्य व्यवसाय होने के कारण ऋग्वैदिक काल मे मुख्यतः एक ही फसल यव (जौ) का उल्लेख प्राप्त होता है।
- ऋग्वैदिक सभ्यता युग मे विभिन्न शिल्पियों मे से बढई का महत्व सर्वाधिक था।
- ऋग्वैदिक काल मे पणि मवेशियों के चोर होते थे तथा ये व्यापार भी करते थे।
- इस युग मे केवल स्थानीय व्यापार होता था। जो वस्तु-विनियम पर आधारित था।
- विनियम की मुख्य वस्तु गाय तथा निष्क होते थे। (निष्क-गले में पहने जाने वाला सोने का आभूषण)
- राजा को स्वेच्छा से दी जाने वाली भेंट बलि कहलाती थी।
राजनैतिक स्थिति-
- लोहे के अभाव में ऋग्वैदिक काल में राजा का पद शक्तिशाली नहीं था। उसका निर्वाचन किया जाता था तथा यह पद वंशानुगत भी नहीं था।
- राजा को जनस्य गोपा कहा जाता था। राजा को कोई बाध्यकार ‘कर‘ लगाने का अधिकार नहीं था।
नोट- भारतीय इतिहास में ‘लोहे‘ का उपयोग लगभग 1050 ई. पू. में प्रारम्भ हुआ। जिसके प्रमाण अतरंजी खेड़ा, ऐटा (उत्तरप्रदेश) से प्राप्त होते है।
- सम्पूर्ण वैदिक सभ्यता में 11 मंत्री अथवा अधिकारी शासन संचालित करते थे जिन्हें ‘रत्निन्‘ कहा गया है।
मंत्री | कार्य |
पुरोहित | सलाहकार ब्राह्यण |
राजा | जनस्य गोपा |
पालागल | विदूषक (हास्य उत्पन्न करने वाला राजा का मित्र) |
भाग दुध | ‘कर‘ संग्रह करने वाला मुख्य अधिकारी |
संग्रहिता | कोषाध्यक्ष |
पुरप | किलों से सम्बन्धित अधिकारी |
प्रश्नविनाक | मुख्य न्यायाधीश |
व्राजपति | चरागाहों का प्रमुख अधिकारी |
स्मश | प्रमुख गुप्तचर |
अक्षवाप | जुए से सम्बन्धित प्रमुख अधिकारी |
सेनानी | प्रमुख सेनापति |
महिषी | रानी |
ऋग्वैदिक काल में प्रशासनिक इकाईयाँ/सामाजिक इकाईयाँ-
इकाई | प्रमुख |
जन | जनस्य गोपा |
विश | विशपति |
ग्राम | ग्रामणी |
कुल | कुलपा (कुल का पालन करने वाला) |
राजनैतिक संस्थाएँ-
- सभा- ऋग्वेद में सभा का उल्लेख 8 बार हुआ है। इसमें समाज के वयोवृद्ध व्यक्ति भाग लेते थे।
- समिति- इसका उल्लेख 9 बार हुआ है। सामान्य जनत इसकी सदस्य होती थी। इसका प्रमुख-ईशान कहलाता था।
- नोट- सभा व समिति राजा का निर्वाचन करती थी तथा उस पर नियंत्रण बनाने का कार्य करती थी।
- विदथ- इसका उल्लेख 122 बार हुआ है। यह आर्यो की सबसे प्राचीन राजनैतिक संस्था थी। जिसके कार्यो के सम्बंध में दो मत प्रचलित है-
- यह ज्ञान से सम्बन्धित कोई संस्था थी।
- लूट के माल के बँटवारे से सम्बन्धित संस्था थी।
- नोट- सभा और विद्ध में महिलाओं का प्रवेश सम्भव था। समिति में नही था।
धार्मिक व्यवस्था- ऋग्वैदिक काल मे ‘बहुदेववाद प्रचलन‘ मे था।
प्रमुख देवता-
- इन्द्र- ऋग्वैदिक काल का सबसे महत्वपूर्ण देवता ‘इन्द्र‘ था जिसका ऋग्वेद में 250 बार उल्लेख हुआ है। इसे सोमपाल, पुरन्दर, मधवा, शतक्रतुख् वृत्रहन नाम से भी जानते है।
- अग्नि- ऋग्वेद में अग्नि का उल्लेख 200 बार हुआ है। इसे यज्ञ की आहुति को देवताओं तक ले जाने वाला तथा देवताओं को यज्ञ में बुलाने वाला माना जाता है।
- वरूण- वरूण का ऋग्वेद में 30 बार उल्लेख हुआ है, इसे जल का देवता, ऋत (नैतिकता) का देवता माना जाता है। ऋत का अर्थ नैतिकता है।
- ऋग्वैदिक काल में ब्राह्माणों का महत्व समाज में अधिक था तथा यज्ञ सम्बन्धी कर्म-काण्ड प्रारम्भ हो गये थे। देवताओं को निवास के आधार पर 3 भागों में बाँटा गया।
- आकाश के देवता- अदिति, अश्विन, पूषन, मित्र, सूर्य, वरूण, नासित्य।
- अंतरिक्ष के देवता- इन्द्र, रूद्र, मरूत (तूफान), वायु (पवन), पर्जन्य (बादल/वर्षा)।
- पृथ्वी के देवता- पृथ्वी, सोम, सरस्वती, अग्नि और बृहस्पति।
- ऋग्वैदिक काल में ब्राह्माणों का महत्व समाज में अधिक था तथा यज्ञ सम्बन्धी कर्म-काण्ड प्रारम्भ हो गये थे। देवताओं को निवास के आधार पर 3 भागों में बाँटा गया।
- पूषन देवता- यह पशुओं का देवता था, जो उत्तरवैदिक काल में शुद्रों का देवता बन गया। इसके रथ को बकरे खींचते थे।
- अदिति- देवताओं की माता।
- सरस्वती- नदी देवी, विद्या देवी।
- मरूत- आँधी व तूफान का देवता।
- अरण्यानी- वन की देवी।
महत्वपूर्ण बिन्दु-
- वैदिककाल में समिति के प्रमुख को ‘ईशान‘ कहा जाता था।
- असती मा सद्गमय…………। वाली प्रार्थना ऋग्वेद से प्राप्त है।
- हिमालय की चोटी ‘मूजवन्त‘ का उल्लेख ऋग्वेद में प्राप्त होता है।
- वैदिक सभ्यता युग में आजीविका कमाने का भार ‘वैश्य‘ वर्ण पर था, इन्हें ‘अन्यस्य बलिकृत‘ कहा गया है।
वैदिक सभ्यता की प्रमुख नदियाँ-
- रेवा-नर्मदा, अस्किनी-चिनाब, परूष्णी-रावी, वितस्ता-झेलम, क्रमु-कुर्रम, सुवास्तु-स्वात, कुभा-काबुल, सदानीरा-गण्डक, शतुद्रि-सतलज, विपाशा-व्यास, सुषोमा-सोहन।
- ऋग्वेद में गंगा का उल्लेख एक बार तथा यमुना का उल्लेख 3 बार हुआ है।
- सिन्धु इनकी सबसे महत्वपूर्ण नदी थी, जबकि सरस्वती सबसे पवित्र नदी थी जिसे नदीतमा कहा गया है। ऋग्वैदिक आर्य सप्त-सैन्धव प्रदेश में रहते थे। उत्तरवैदिक काल के आर्य गंगा व यमुना के मध्य के क्षेत्र में रहते थे।
उत्तरवैदिक-काल (1000 ई.पू. – 600 ई.पू.) Uttar Vedic Kal
जानकारी के स्रोत-
- सामवेद- इसे भारतीय संगीतशास्त्र का ‘जनक ग्रन्थ‘ कहा जाता है।
- यजुर्वेद- यज्ञों से सम्बन्धित वेद, जो गद्य व पद्य दोनों मे लिखा गया।
- शून्य का प्रथम उल्लेख यजुर्वेद में प्राप्त होता है।
- यजुर्वेद दो भागों में विभक्त है- कृष्ण यजुर्वेद व शुक्ल यजुर्वेद। शुक्ल यजुर्वेद को वाजसनेयी संहिता भी कहते है।
- नोट- वेदत्रयी प्रथम तीन वेदों को वेदत्रयी कहा जाता है। अथर्ववेद की गणना इसमें नहीं होती।
- अथर्ववेद- इसकी रचना अन्त में हुई। यह जादू-टोने/ भिषज विद्या (चिकित्सा) से सम्बन्धित वेद है। इसे ब्रह्य वेद भी कहते है।
- ब्राह्यण ग्रन्थ- ये ग्रन्थ गद्य में लिखित है जो वेदों के अर्थ को आसानी से प्राप्त करने के लिए रचित किये गए।
- आरण्यक- वन प्रदेश में अध्ययन करने योग्य गूढ़ चिन्तन के ग्रन्थ आरण्यक कहलाए। इनकी संख्या 7 है। अथर्ववेद का कोई आरण्यक नहीं है।
- उपनिषद- गुरू के समीप बैठकर अध्ययन करने योग्य वेदों के दर्शनिक विवेचन को प्राप्त करने योग्य ग्रन्थ उपनिषद कहलाए।
- उपनिषदों को वेदान्त भी कहा जाता है।
- उपनिषदों की संख्या 108 है जिसमें से 12 अधिक प्रसिद्ध है।
- ऐतरेय, प्रश्न, केन, मुण्डक, कठ, माण्डुक्य, कौषीतकि, तैतरीय, छान्दोग्य, ईश, वृहदारण्यक, श्वेताश्वेतर उपनिषद्।
- उपनिषदों में सवांद शैली प्राप्त होती है।
- वृहदारण्यक उपनिषद गद्य में प्राप्त है।
- पुराण- पुराणों की संख्या 18 है जिनकी रचना लोमहर्ष व उसके पुत्र उग्रश्रवा ने की।
- पुराणों में प्राचीन कहानियाँ तथा ऐतिहासिक वंशावलियाँ प्राप्त होती है।
- विष्णुपुराण- मौर्यकाल की जानकारी, वायुपुराण- गुप्तकाल, मत्स्यपुराण- सातवाहन तथा शुंग वंश।
- स्मृति ग्रन्थ- सामाजिक व धार्मिक नियमों की जानकारी स्मृति ग्रन्थों से प्राप्त होती है।
- वेदांग- वेदों का अर्थ प्राप्त करने में सहायक ग्रन्थ वेदांग कहलाते है। इनकी संख्या 6 है।
- व्याकरण- मुख, शिक्षा- नासिका, कल्प- हाथ, निरूक्त- कान, ज्योतिष- नेत्र, छन्द- पैर।
- नोट- ब्रह्या को यज्ञों का निरीक्षक कहा जाता है।
- उत्तरवैदिक काल में जन जनपद कहलाने लगे। पशुपालन के स्थान पर कृषि मुख्य व्यवसाय हो गया।
- शिल्पीयों में बढ़ई के स्थान पर रथकारों को महत्व बढ़ गया।
- लोहे के उपयोग की वजह से राजा की शक्तियों में वृद्धि हुई तथा उसका पद वंशानुगत हो गया।
राजा की उपाधियाँ-

- उत्तवैदिक काल में महिलाओं का महत्व पहले से कम हो गया। फिर भी गार्गी तथा मैत्रेयी जैसी विदुषियों के नाम प्राप्त होते है।
- मैत्रायणी संहिता मे स्त्री को सुरा तथा पासा के साथ तीसरी बुराई कहा गया है।
महत्वपूर्ण यज्ञ अनुष्ठान-
- राजसूर्य यज्ञ- राज्याभिषेक के समय सम्पादित किया जाने वाला यज्ञ। जिसकी जानकारी शुक्ल यजुर्वेद से प्राप्त होती है।
- अश्वमेघ यज्ञ- राज्य का सीमांकन तथा उसके बाद अश्व की बलि से सम्बन्धित यज्ञ।
- वाजपेय यज्ञ- रथों की दौड़ से सम्बन्धित यज्ञ जिसमें राजा को विजयी बनाने का प्रयास किया जाता था।
- अग्निष्टोम् यज्ञ- इस यज्ञ मे पशु की बलि दी जाती थी।
- नरबलि/पुरुषमेघ यज्ञ- इस यज्ञ में मनुष्य की आहुति दी जाती थी।
महत्त्वपूर्ण बिन्दु-
अथर्ववेद मे सभा और समिति को प्रजापति की दो पुत्रियाँ कहा गया है। उत्तरवैदिक काल का प्रमुख देवता प्रजापति था।
तीन ऋण-
- पितृ ऋण- सन्तानोत्पत्ति तथा पालन-पोषण का ऋण
- देव ऋण- सृष्टि की स्थापना तथा हमारे संरक्षण का ऋण।
- ऋषि ऋण- ज्ञान प्रदान करने का ऋण।
- पंचमहायज्ञ-
- पितृयज्ञ- सन्तानोत्पत्ति के माध्यम से पितृऋण से मुक्ति प्राप्त हो सकती है। साथ ही पूर्वजों के लिए श्राद्ध तर्पण किया जाना चाहिए।
- देवयज्ञ- देवों की स्तुति के माध्यम से हम देवऋण से मुक्ति प्राप्त कर सकते है।
- ऋषियज्ञ- अध्ययन व अध्यापन के द्वारा ऋषि यज्ञ सम्पादित होता है।
- नृयज्ञ/पुरुष यज्ञ- अतिथी सत्कार के द्वारा इस यज्ञ को सम्पादित किया जाता है।
- भूत यज्ञ- जीवों को भोजन व संरक्षण प्रदान करके इस यज्ञ को सम्पादित किया जाता है।
- विवाह- विवाह के आठ प्रकारों में से प्रथम चार को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त है, शेष को नही।
- प्रजापत्य विवाह- वर को अपने घर बुलाकर आशीर्वाद सहित कन्या प्रदान करना।
- आर्ष विवाह- अपनी कन्या के विवाह के बदले भंेट स्वरूप वर से गाय व बैल की जाड़ी प्राप्त करना।
- दैव विवाह- विधिपूर्वक यज्ञ सम्पादित करने वाले पुरोहित से अपनी पुत्री का विवाह।
- ब्रह्य विवाह- यह सर्वोत्कृष्ट प्रकार का विवाह है, जो आज तक सर्वाधिक प्रचलित है। इसके अन्तर्गत योग्य वर को घर पर आमन्त्रित करके वस्त्र-आभूषणों से युक्त सुसज्जित कन्या प्रदान की जाती थीं
- अस्वीकृत विवाह-
- गन्धर्व विवाह- पारिवारिक अनुमति के बिना कामोतेजना के वशीभूत होकर स्वयं विवाह का निर्णय करना।
- आसुर विवाह- कन्या के बदले धन प्राप्त करके उसका विवाह करना। जो सौदेबाजी पर आधारित था।
- राक्षस विवाह- कन्या का अपहरण करके बल पूर्वक उससे विवाह करना क्षत्रियों में यह बहुत प्रचलित था।
- पैशाच विवाह- बेहोशी की अवस्था में सम्बन्ध स्थापित करके बलपूर्वक विवाह करना। यह सबसे निष्कृष्ट विवाह था।
- उत्तरवैदिक काल का समाज जन्म पर आधारित वर्ण-व्यवस्था का अनुयायी था।
- इसी युग में जाति और गोत्र व्यवस्था प्रारम्भ हुई।
- संस्कार- शुद्धिकरण से सम्बन्धित धार्मिक क्रियाऐं
इनकी संख्या 16 स्वीकार की गयी है।- गर्भाधान (गर्भधारण)
- पुंसवन (पुत्र प्राप्ति के लिए संस्कार)
- सीमन्तोन्नयन (गर्भवती को जादू-टोने से बचाना)
- जातकर्म (जन्म)
- नामकरण (बालक का नाम रखना)
- निष्क्रमण (पहली बार घर से निकालना)
- अन्नप्राशन (पहली बार अन्न खिलाना)
- चूडाकर्म (बाल उतारना/मुण्डन)
- कर्ण वैध (कान छिद्वाना)
- विद्यारम्भ (घर पर माता पिता द्वारा दिया गया ज्ञान)
- उपनयन (जनेऊ)
- वेदारम्भ (गुरू के पास जाकर वेदों का ज्ञान प्राप्त करना)
- केशान्त (गुरू के आश्रम में बालों का अन्त)
- समावर्तन (शिक्षा का अन्त)
- विवाह (शादी)
- अन्त्येष्टि (अन्तिम संस्कार)
- उपनयन संस्कार- ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को यज्ञोपवीत (जनेऊ) धारण करने का अधिकार था। यज्ञोपवीत धारण करके इनका नया जन्म स्वीकार किया जाता है। अतः इन वर्णो को द्विज कहा जाता था।
- चार पुरुषार्थ- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष
- चार आश्रम- ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम, सन्यास आश्रम
- गृहस्थ आश्रम में चारों पुरुषार्थो की प्राप्ति संभव है। अतः यह सर्वश्रेष्ठ आश्रम है।
उत्तर-वैदिक काल के दर्शनिक राजा- Uttar Vedic Kal
जनपद | राजा |
विदेह | जनक |
कैकेय | अध्वपति |
काशी | अजातशत्रु |
पांचाल | प्रवाहण जाबालि |
नोट- पांचाल सबसे बड़ा व प्रसिद्ध जनपद था।
महत्त्वपूर्ण तथ्य-
- ऐतरेय ब्राह्मण ग्रन्थ में पहली बार चारों वर्णों के कर्माे का उल्लेख प्राप्त होता है। छान्दोग्य उपनिषद् में तीन आश्रमों का नाम प्राप्त होता है। (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ)
- जाबालोपनिषद् में पहली बार चारों आश्रमों के नाम प्राप्त होते है। मुण्डकोपनिषद में भारत का आदर्श वाक्य सत्यमेव जयते प्राप्त होता है। मुण्डकोपनिषद् में यज्ञ को ऐसी नाव कहा गया है जिस पर विश्वास नहीं किया जा सकता।
- कठोपनिषद में यम तथा नचिकेता की कहानी वर्णित है।
- वृहदारण्यक उपनिषद्- यह सबसे बडा उपनिषद् है जिसके अन्तर्गत राजा जनक की सभा मे याज्ञवल्क्य तथा गार्गी के मध्य ज्ञान चर्चा का उल्लेख प्राप्त होता है।
- शतपथ ब्राह्मण में पुनर्जन्म का पहली बार उल्लेख हुआ है। इसके अलावा इस ब्राह्मण ग्रन्थ में मनु की कथा व विदेथ माधव की कथा वर्णित है। छान्दोग्य उपनिषद् में इतिहास पुराण को पंचम् वेद कहा गया।