Rajasthan ki Van Sampda | Rajasthan Geography

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Rajasthan ki Van Sampda
  • 1901 ई. में सर्वप्रथम वनों में टोंक रियासत द्वारा शिकार एक्ट लागू
  • 1910 ई. में सर्वप्रथम वनों को सुरक्षित रखने की योजना।
  • 1949-50 राजस्थान में वन विभाग की स्थापना।
  • प्रशासनिक दृष्टि से वनों को तीन भाग है
    1. आरक्षित
    2. रक्षित
    3. अवर्गीकृत वन
  • आर्थिक दृष्टि से वनों के दो भाग
    1. मुख्य उपज
    2. गौण उपज
  • सेवण घास के प्रकार- धामन, मुरात, लीलोण, करड़, अंजन।
  • वानस्पतिक नाम- लसिमुरुस सिडीकुस
  • राजस्थान में सर्वाधिक धोकड़ा प्रकार की वनस्पति पाई जाती है
  • सीवन, तुरडिगम- पश्चिमी राजस्थान में पाई जाने वाली घास।
  • पलास वृक्ष- नारंगी के समान, फुलों से लदा हुआ सुन्दर वृक्ष
    • अंग्रेजी नाम- Flam of the Forest
    • वानस्पतिक नाम- ब्यूटिया मोनो स्पर्मा
  • चिपको आन्दोलन का स्रोत- खेजड़ी वृक्ष (कल्प वृक्ष, शम्भी, जांटी)
    • वैज्ञानिक नाम- प्रोसेपिप सिनेरेरिया (शासनकाल-महाराजा अभयसिंह)
    • खेजड़ली गांव जोधपुर में (1730 ई.) विश्नोई सम्प्रदाय के 363 महिला पुरुषों ने अमृतादेवी के नेतृत्व में खेजड़ी वृक्ष को बचाने के लिए पेड़ों की आहुति दे दी थी।
    • राजस्थान में वनों बचाने के लिए 1994 में अमृतादेवी पुरस्कार घोषित किया गया था। जो सर्वप्रथम गंगाराम विश्नोई को दिया गया था।
  • वन्य जीवों को बचाने हेतु- कैलाश सांकला पुरस्कार
  • 1951 ई.- राजस्थान में वन्य पशु व पक्षी संरक्षण अधिनियम।
  • 1972 ई.- भारत सरकार द्वारा वन्य जीव सुरक्षा अधिनियम
  • हिलावी- पश्चिमी राजस्थान में खजूर की किस्म
  • आवल या झाबुई- पश्चिमी राजस्थान में पाई जाने छोटी-छोटी झाड़ियाँ (जिसकी छाल से चमड़ा साफ करने की उत्तम किस्म)
  • साटी- एक प्रकार की घास (जिसके पत्तों से सब्जी बनाई जाती है)
  • तेंदू- तेंदू के पत्तों से बिड़ी बनाई जाती है जिसे टीमरु की कहा जाता है।

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