Rajasthan ki Chitrakala | राजस्थान की चित्रकला

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Rajasthan Ki chitrakala

राजस्थानी चित्रकला का उद्भव अपभ्रंश शैली से लगभग 15वीं शताब्दी में हुआ था। राजपूत काल में भित्तिचित्र, पोथीचित्र कई लघु चित्र बनाने की परम्परा रही है। राजस्थान में आलनियां, दर्रा कोटा, बैराठ जयपुर तथा दर भरतपुर आदि स्थानों पर मानव द्वारा उकेरे गये चित्र प्रदेश की प्रारम्भिक चित्रण परम्परा को उद्घाटित करते है।

राजस्थानी चित्रकला का विकास-

  • राजस्थान की चित्रकला का प्रारम्भिक केन्द्र मेदपाट (मेवाड़) था।
  • तिब्बत इतिहासकार तारानाथ ने मारवाड़ में सातवीं सदीं में श्रीरंगधर नामक चित्रकार का उल्लेख किया है।
  • राजस्थान में चित्रकला के प्राचीनकाल उपलब्ध ग्रन्थ जैसलमेर संग्रहालय में 1060 ई. के ओध नियुक्ति वृति और दस वैकालिका सूत्र चूर्णि ग्रन्थ मिले हैं।
  • 1260 ई. में ताड़पत्र चित्रित राजस्थान का प्रथम ग्रन्थ श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र चूर्णी है जो आहाड़ उदयपुर में गुहिल वंशी शासक तेजसिंह के शासनकाल (1252-62 ई.) में कमलचन्द्र के द्वारा चित्रित हुआ था।
  • दूसरा प्राचीनतम् ग्रंथ सुपार्श्वनाथ चरितम है। जो देवकुल पाटक उदयपुर में सिसोदिया वंशी शासक महाराणा मोकल के शासनकाल (1397-1433 ई.) में हीराचन्द्र के द्वारा 1422-23 ई. में चित्रित हुआ था।
  • सत्रहवीं शताब्दी में मुगल साम्राज्य के प्रसार से राजपूतों के वैवाहिक सम्बन्धों के फलस्वरूप राजपुत चित्रकला पर मुगलों का प्रभाव बढ़ने लगा। कतिपय विद्धान 17वीं और 18वीं शताब्दीं के प्रारम्भिक काल को राजस्थानी चित्रकला का स्वर्णकाल मानते है।

राजस्थानी चित्रकला का नामकरण-

राजस्थानी चित्रकला का सबसे पहला वैज्ञानिक विभाजन आन्नद कुमार स्वामी ने 1916 ई. में राजपुत पेंटिग नामक पुस्तक में किया था।


राजस्थानी चित्रकला का वर्गीकरण चार भागों में दर्शाया गया है-

  1. मेवाड़ शैली – चावण्ड़, उदयपुर, नाथद्वारा, देवगढ़
  2. मारवाड़ शैली – जोधपुर, बीकानेर, किशनगढ़, जैसलमेर, पाली नागौर, घाणेराव
  3. हाड़ौती शैली – कोटा, बूंदी
  4. ढूँढाड़ शैली – आमेर, जयपुर, अलवर, उणियारा, शेखावटी

मेवाड़ शैली (मेवाड़ स्कूल)-

  • यह राजस्थान की सबसे प्राचीन व मूल शैली है।
  • इस शैली को विकसित करने में महाराणा कुम्भा का योगदान रहा है।
  • महाराणा अमरसिंह के शासनकाल (1597-1620 ई.) में इस शैली पर मुगलों का प्रभाव पड़ा था।
  • महाराणा जगतसिंह प्रथम के शासन काल (1628-1652 ई.) को मेवाड़ शैली का स्वर्णकाल कहा जाता है।
  • जगतसिंह प्रथम के समय राजमहल में चितेरो की ओबरी नाम से कला विद्यालय स्थापित किया गया था। जिसे तस्वीरां रो कारखानों के नाम से जाना जाता था।
  • जगतसिंह के स्वर्णकाल में रागमाला, रसिक प्रिया, रामायण, गीत- गोविन्द, सुर सागर, कादम्बरी, राग-रागिनी आदि लघु चित्रों का निर्माण हुआ था।
  • कलिला-दमना मेवाड़ शैली की कहानी के दो पात्र थे।

पंचतंत्र- विष्णु शर्मा द्वारा रचित पंचतंत्र नामक ग्रन्थ में पशु-पक्षियों की कहानियों के माध्यम से मानव जीवन के सिद्धांतों का समझाया गया है।
पंचतंत्र का फारसी में अनुवाद- कलिला दमना है इसमें राजा तथा उसके मंत्री कलिला-दमना का वर्णन किया गया है।

इस शैली के प्रमुख कलाकार-

  • साहिबराम, मनोहर, कृपाराम तथा उमरा

मेवाड़ शैली की विशेषता

प्रमुख रंगपीला
प्रमुख वृक्षकदम्ब वृक्ष
प्रमुख पशुहाथी का चित्रण

चावण्ड़ शैली-

  • 16वीं सदीं के अन्त में महाराणा प्रताप ने चावण्ड़ को मेवाड़ की राजधानी बनाई। उसी के साथ ही मेवाड़ी चित्रकला का विकास हुआ था।
  • इस काल की प्रसिद्ध कृति ढोला मारू (1592 ई.) है, जो राष्ट्रीय संग्रहालय नई दिल्ली में सुरक्षित है।
  • महाराणा अमरसिंह के शासन काल में मेवाड़ की राजधानी चावण्ड़ में 1605 ई. में चित्रकार निसारद्दीन ने रागमाला का चित्रण किया था।
  • अमरसिंह का शासन काल चावण्ड़ शैली का स्वर्णकाल कहलाता है।
  • चावण्ड शैली में 1648 ई. में साहिबद्दीन द्वारा चित्रित भागवत पुराण को तथा 1649 ई. में रामायण को चित्रित किया था।

नाथद्वारा शैली-

  • इस शैली का उद्भव उदयपुर एवं ब्रज शैली के समन्वय से हुआ था।
  • औरंगजब की धार्मिक नीतियों के कारण महाराणा राजसिंह के समय में 1672 ई. में सिहाड गांव (नाथद्वारा) में श्रीनाथ जी मूर्ति स्थापना के साथ ही इस शैली का विकास हुआ था।
  • इस शैली में श्रीनाथ जी, यमुना स्थान, अन्नकूट जन्माष्टमी, कृष्ण लीलाओं का चित्रण, गाय, पिछवाई दासी आदि का चित्रण किया जाता है।
  • नाथद्वारा में वल्लभ सम्प्रदाय के पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय की प्रमुख पीठ है।
  • यहां श्रीनाथ को श्रीकृष्ण का प्रतीक मानकर पूजा जाता है।
  • मन्दिर में इस प्रतिमा के पीछे कपड़े (पर्दे) पर कृष्ण की विविध लीलाओं का चित्रण किया गया है। उसे पिछवाई कहा जाता है।

नाथद्वारा शैली के प्रमुख कलाकारः-

  • नरोतम नारायण, घनश्याम, घासीराम, उदयराम, कमला, चम्पालाल आदि।

नाथद्वारा शैली की विशेषता

प्रमुख रंगपीला
प्रमुख वृक्षकेला
प्रमुख पशुगाय

देवगढ़ शैली-

  • मेवाड़ के महाराणा जयसिंह के समय रावत द्वारिका दास चूंड़ावत ने 1680 ई. में देवगढ़ ठिकाने स्थापना की थी। इसी के साथ ही देवगढ़ शैली का जन्म हुआ था।
  • यहां के रावत सौलहवें उमराव कहलाते थे, जिन्हें प्रारम्भ से ही चित्रकला में रूचि थी।
  • सर्वप्रथम इस शैली को प्रकाश में लाने का श्रेय श्रीधर अंधारे को जाता है।
  • इस शैली में भित्ति चित्र, अजारा की ओबरी, मोती महल शिकार, हाथियों की लड़ाई, राज-दरबार का दृश्य तथा कृष्ण लीलाओं का चित्रण आदि देखने को मिलते है।
  • इस शैली को मारवाड़, ढूँढाड़ व मेवाड़ की समन्वित शैली के रूप में देखा जाता है जिसमें हरे व पीले रंग का प्रयोग हुआ है।

मारवाड़ शैली (मारवाड़ स्कूल)-

  • मारवाड़ शैली का विकास मालदेव के शासनकाल (1531-62 ई.) में हुआ था। जिसके विकास में मालदेव ने सर्वाधिक योगदान किया था।
  • मोटाराजा उदयसिंह के समय इस शैली पर मुगल प्रभाव पडा।
  • सन् 1623 ई. में वीर विठ्ठलदास चंचावत (वीर जी) चित्रकार द्वारा रागमाला चित्रावली का ऐतिहासिक महत्व है।
  • यह शैली अन्य शैलियों से भिन्न है इसमें मारवाडी साहित्य के प्रेमाख्यान पर आधारित चित्रण अधिक हुआ है। यहां प्रेमाख्यानों के नायक-नायिकाओं की भाव-भंगिमाओं का सुन्दर चित्रण हुआ है।
  • ढोलामारू, सोहनी महीवाल, वेली क्रिसन रूकमणी, वीरमदेव सोनगरा री बात, चन्द्रकंवर री बात, मृगावती रास, फूलमती री वार्ता, हंसराज बच्छराज की चौपाई, निहालदे, रूपमत्ती, रेगिस्तानी टीले, भाटी परिवार की चित्रकला, बारहमासा, ऊँचे टीले, झाडियाँ, आम के वृक्ष, ऊँट, घोडे़, मरुस्थल आदि का चित्रण उल्लेखित है।
  • 19वीं सदीं में यह शैली नाथ सम्प्रदाय से प्रभावित रही है राजा मानसिंह के समय चित्रकला मठों से परिपोषित हुई।
  • मारवाड़ शैली में गलमुच्छ ऊँची पगड़ी राजसी वैभव के वस्त्राभूषण और स्त्रियों में ठेठ राजस्थानी लंहगा, ओढनी, लाल फूदने आदि का प्रयोग प्रमुख रूप से हुआ है।

मारवाड़ शैली की विशेषता

प्रमुख रंगपीला/लाल
प्रमुख वृक्षआम
प्रमुख पशुघोड़ा, ऊँट

बीकानेर शैली-

  • राजस्थानी की एक प्रभावी शैली का जन्म बीकानेर से हुआ। बीकानेर की स्थापना राव जोधा के पुत्र बीका के द्वारा की गई।
  • बीकानेर शैली के प्रारंभिक चित्र महाराजा रायसिंह के शासनकाल (1574-1612 ई.) में चित्रित भागवत पुराण को माना जाता है।
  • रायसिंह के शासनकाल में इस शैली पर मुगलों का प्रभाव पडा।

महाराजा रायसिंह मुगल बादशाह अकबर के विश्वासप्रिय बहादुर सेनापत्ति थे। रायसिंह ने अपनी पुत्री का विवाह शहजादा सलीम से कर मुगल दरबार में सम्बध सुदृढ किये।

  • रायसिंह कला प्रिय होने के साथ-साथ साहित्यक अभिरूचि से सम्पन्न व्यक्ति था उन्होनें स्वयं ‘‘रायसिंह महोत्सव‘‘ तथा ‘‘ज्योतिष रत्नाकर‘‘ जैसे ग्रन्थों की स्थापना की थी।

नोट- रायसिंह के समय बीकानेर में भयंकर अकाल पडा था। जिसमें रायसिंह ने जनहित के लिए अनेक सुविधाऐं उपलब्ध करवाई थी। इसलिए रायसिंह को राजपूताने का कर्ण कहा जाता है।

  • बीकानेर के प्रारंभिक चित्रों में जैन धर्म एवं मुगल शैली का प्रभाव दिखाई देता है।
  • रायसिंह के समय उस्ता अली राजा व उस्ता रुकनूद्दीन प्रमुख चित्रकार थे।
  • बीकानेर शैली में चित्रकार अपने चित्रों के नीचे अपना नाम एवं तिथि अंकित करते है।
  • बीकानेर शैली में पीला रंग का सर्वाधिक प्रयोग हुआ है।
  • महाराजा अनूप सिंह का काल इस शैली का समृद्ध काल कहलाता है जहां सैकड़ों चित्र बने थे।
  • यहां रसिक-प्रिया, बारहमासा, रागमाला, कृष्णलीला, राजसी ठाठ, सामन्ती वैभव, उष्ट्र कला श्रृंगारिक आख्यान, पुरुष क्रीड़ा, फुलझड़ियां लिये हुए स्त्रियां, दम्पति द्वारा चौपड़ का खेल आदि का चित्रण हुआ है।

किशनगढ शैली-

  • किशनगढ़ (1609 ई.) के संस्थापक किशनसिंह के समय इस शैली पर मुगलों का प्रभाव पड़ा।
  • महाराजा राजसिंह के पुत्र सांवत सिंह (1699-1764 ई.) का शासनकाल इस शैली का स्वर्ण काल कहलाता है।
  • बणी-ठणी, संगीतज्ञ एवं एक कवयित्री थी। जो सांवतसिंह (नागरीदास) की प्रेयसी एवं दिल्ली की दासी थी।

बणी-ठणी का वास्तविक नाम राजकंवरी था। यह स्वयं एक रसिक बिहारी की कविताओं का गुणगान करती थी इसे राजस्थान की मोनालिसा, राजस्थान की राधा, नागररमणी, उत्सवप्रिया और कलावंती आदि नामों से जाना जाता था।

  • राजस्थानी शब्दावली में बणी-ठणी का शाब्दिक अर्थ सजी -धजी होता है।
  • सांवतसिंह (नागरीदास) के समय मोरध्वज निहालचन्द ने (1755-57 ई.) बणी-ठणी को राधा के रूप में तथा नागरीदास को कृष्ण के रूप में चित्रित किया।
  • इस शैली को लोकप्रिय बनाने का श्रेय एरिक डिक्सन और फैयास अली को जाता है।
  • एरिक डिक्सन ने बणी-ठणी को भारत की मोनालिसा कहा है। 5 मई 1973 ई. को इस पर 20 पैसे का डाक टिकिट जारी किया गया।
  • इस शैली में सर्वाधिक चित्र कागज पर बनाये गये है इसलिए इसे कागदी शैली भी कहा जाता है।
  • यह शैली नारी की सौन्द्रर्यता पर आधारित है।
  • सांवत सिंह के शासन काल में अमरचन्द ने चांदनी रात की संगोष्ठी नामक चित्र बनाया।
  • किशनगढ़ शैली में भित्ति चित्रों का उल्लेख नहीं मिलता।
  • इस शैली में तैरती नौकाएं राधा-कृष्ण की क्रीडा, बादलों का सिंदूरी चित्रण, गीत-गोविन्द, बिहारी चन्द्रिका आदि का चित्रण किया गया।
  • प्रमुख चित्रकार- निहालचन्द, अमरचन्द, सूरध्वज, भंवरलाल, छोटू आदि

किशनगढ़ शैली की विशेषता

प्रमुख रंगसफेद व गुलाबी
प्रमुख वृक्षकेला

जैसलमेर शैली-

  • इस शैली को महारावल हरराज, अखेसिंह व मूलराज ने संरक्षक प्रदान किया।
  • मूमल जैसलमेर शैली का प्रमुख चित्र है।
  • इस शैली के कलाकारों ने अपनी कला में मुगल व जोधपुरी शैली का प्रभाव नही पड़ने दिया।

नागौर शैली –

  • नागौर शैली का विकास 18वीं सदीं के प्रारम्भ में माना जाता है।
  • यह शैली जोधपुर, बीकानेर, अजमेर, मुगल व दक्षिण शैली का मिला-जुला रूप है।
  • इस शैली में बुझे हुए रंगों का अधिक प्रयोग किया गया है, तथा पारदर्शी वेशभूषा इसकी अपनी विशेषता है।

बूंदी शैली (हाड़ौती स्कूल)-

  • यह शैली मेवाड़ शैली से प्रभावित रही है।
  • बूंदी शैली राजस्थानी विचारधारा का आरम्भिक केन्द्र था।
  • इस शैली का सर्वाधिक विकास राव सुर्जन सिंह के समय में हुआ था। जबकि उम्मेद सिंह का काल इस शैली का स्वर्णकाल कहलाता है।
  • 18वीं सदीं में राव उम्मेद सिंह के काल में सर्वाधिक रंगीन चित्रों का निर्माण हुआ।
  • 1750 ई. में जंगली सूअर का शिकार करते हुए बनाया गया चित्र इस शैली के चित्रों में से प्रसिद्ध माना जाता है।
  • इस शैली में पशु-पक्षियों के चित्रांकन पर अधिक महत्व दिया गया है।
  • इस शैली में कविता एवं कला दोनो का मिश्रण पाया जाता है तथा यहां के चित्रों में रेखाओं का सर्वाधिक व सशक्त अंकन किया गया है।

बूंदी शैली की विशेषता

प्रमुख रंगहरा
प्रमुख वृक्षखजूर
प्रमुख पशु, पक्षीशेर, बतख

कोटा शैली-

  • इस शैली का विकास महारावल रामसिंह के शासन काल में हुआ था।
  • उम्मेद सिंह का शासन काल इस शैली का स्वर्णकाल कहलाता है।
  • महाराजा भीमसिंह ने कोटा राज्य में कृष्ण-भक्ति को विशेष महत्व प्रदान किया जिससे इस शैली पर वल्लभ सम्प्रदाय का पूर्ण प्रभाव अंकित हुआ।
  • इस शैली में शिकार के चित्र सर्वाधिक मिलने के कारण इसे शिकार शैली भी कहा जाता है। जहां रानियों को भी शिकार करते हुए दिखाया गया है, जो इस शैली की विशेष पहचान हैं।
  • यहां दरबारी दृश्य, जुलूस, शिकार के चित्र, कृष्ण-लीला, खजूर के वृक्ष, बारहमासा, राग-रागिनी आदि प्रसिद्ध चित्रों में यहां नीले रंग का प्रयोग हुआ है।
  • इस शैली के उत्कृष्ट चित्र- झाला की हवेली, राजमहल, बडे़ देवता, श्रीधरजी की हवेली।
  • 1768 ई. में डालू नामक चित्रकार द्वारा चित्रित रागमाला सैट जो कोटा कलम का सबसे बडा सैट है।

कोटा शैली की विशेषता

प्रमुख रंगनीला
प्रमुख वृक्षखजूर
प्रमुख पशु, पक्षीशेर, बतख

जयपुर शैली (ढूँढाड़ स्कूल)-

  • इस शैली का विकास सवाई जयसिंह द्वितीय के शासन काल में हुआ था।
  • सवाई प्रताप सिंह का शासन (1799-1803 ई.) जयपुर शैली का स्वर्ण काल कहलाता है।
  • इस शैली में व्यक्ति के चित्र सर्वाधिक बनाये गये है।
  • इस शैली का प्रमुख चित्रकार साहिबराम ने महाराजा ईश्वरी सिंह का आदमकद चित्र बनाया तथा चित्रकार लालचन्द ने जानवरो की लड़ाई (हाथियों की लड़ाई प्रमुख) के अनेक चित्र बनाये।
  • बड़े-बड़े पोट्रेट (आदमकद या व्यक्ति चित्र) भित्ति चित्रण की परम्परा जयपुर शैली की विशिष्ट पहचान है तथा यहां कामशास्त्र की भाव-भंगिमाओं का भी चित्रण किया गया है।

उणयारी शैली-

  • इस शैली पर जयपुर व बूंदी शैली का प्रभाव पड़ा।
  • नरूका ठिकाने के वंश ने इस शैली में विशेष योगदान दिया।
  • प्रमुख कलाकरः- धीमा, मीरबक्स, कासी, भीम, रामलखन

आमेर शैली-

  • आमेर शैली राजा मानसिंह व मिर्जा राजा जयसिंह के समय विकसित हुई थी।
  • मुगलों से सम्बन्ध स्थापित रखने के कारण इस शैली पर मुगल शैली का प्रभाव सर्वाधिक पड़ा।
  • इस शैली में प्राकृतिक रंगों का प्रयोग किया गया है।
  • इस शैली में आदि पुराण, भागवत पुराण, यशोधरा रज्मनामा (महाभारत का फारसी अनुवाद) आदि प्रमुख ग्रंथ चित्रित किये गये है।
  • बिहारी, सतसई पर आधारित चित्र भी इसी शैली में बने हुए है।
  • प्रमुख कलाकारः- पुष्पदत्त, हुकुमचन्द, मुरली

अलवर शैली-

  • अलवर शैली का विकास एवं स्वर्णकाल महाराजा विनयसिंह के शासनकाल कहलाता है।
  • यह शैली जयपुर चित्रकला शैली के अधीन है, जिसमें जयपुर, अलवर और दिल्ली का समन्वय देखने को मिलता है।
  • अलवर शैली राजस्थान की एकमात्र शैली हैं, जिसमें गणिकाओं (वेश्याओं) एवं कामशास्त्र का चित्रण किया गया है।

शेखावटी शैली-

  • जयपुर शैली के भित्तिचित्रण का सर्वाधिक प्रभाव शेखावटी शैली पर पड़ा।
  • 19वीं, 20वीं सदीं में शेखावटी में श्रेष्टजनों ने कई हवेलियों का प्रश्रय प्रदान किया।
  • शेखावटी शैली में- तीज त्योहार, होली-दीपावली के उत्सवों का अंकन, शिकार, महफिल नामक नायिका का भेद अन्य भावों का अंकन हुआ है।

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