राजस्थान में प्राचीनकाल से अनेक धर्मों के अनुयायी यहां निवास करते आए है जो ईश्वर प्राप्ति का मार्ग अपनाते हुए अनेक महात्माओं ने अपने अलग संप्रदाय चलाये। भक्ति परम्परा – भक्ति का अर्थ भजना या उपासना करना सर्वप्रथम भक्ति परम्परा का विकास दक्षिणी भारत में 12 वैष्णव संतो (आलवार) एवं 63 शैव संतों (ओड़ियार/नययार) ने किया था। वैष्णव संत थे जो महाराष्ट्र में लोक प्रिय हुए। शैव संत पंजाब व राजस्थान में लोकप्रिय हुये। दक्षिणी भारत में भक्ति परम्परा के प्रवर्तक शंकराचार्य थे जिन्होंने हिन्दू धर्म को संगठित करने के लिए देश के चार कोणो में चार मठों की स्थापना कर अद्वैतवाद मत चलाया।
उत्तर में बद्रीनाथ (उत्तराखण्ढ)
दक्षिण में रामेश्वर (तमिलनाडु)
पूर्व में जगनाथ जी (पूरी, उडीसा)
पश्चिम में द्वारिका (गुजरात)
शंकराचार्य के अद्वैतवाद मत के विरोध में दक्षिणी भारत में वैष्णव संतों द्वारा चार मतों की स्थापना की। शंकराचार्य का जन्म 788 ई. को केरल के ब्राह्यण परिवार में हुआ इनके पिता का नाम शिवगुरू तथा माता विशिष्टा देवी था। सम्पूर्ण भारत में चार मठों की स्थापना कर जगतगुरू की उपाधि धारण की थी।
वैष्णवसंत
प्रचलितमत
कृति
सम्प्रदाय
रामानुजाचार्य
विशिष्टाद्वैतवाद
श्री भाष्य
श्री सम्प्रदाय
वल्लभाचार्य
शुद्धद्वैतावाद
अणु भाष्य
रूद्ध सम्प्रदाय
निम्बार्कचार्य (भास्करचार्य)
द्वैताद्वैतवाद (भेदोभेद)
वेदांत परिजात भाष्य
सनक, हंस, नारदसम्प्रदाय
माध्वाचार्य
द्वैतवाद
पूर्णपज्ञ भाष्य
ब्रह्य सम्प्रदाय
Table of Contents
रामानुजाचार्य की शिष्य परम्परा
भक्ति परम्परा के प्रवर्तक शंकराचार्य थे जिनके अनुयायी रामानुजाचार्य हुए।
रामानुजाचार्य- रामानुजाचार्य का जन्म 1017 ई. को तमिलनाडु के पेरुबुदूर गांव में हुआ था। इनके पिता का नाम केशवभट्ट तथा गुरू का नाम यादव प्रकाश था यह वैवाहिक जीवन से ऊबकर सन्यासी हो गये। इनकी मृत्यु 1137 ई. में तमिलनाडु के श्रीरंगम नामक स्थान पर हुई।
रामानन्द – (रामानन्दी सम्प्रदाय)
रामानन्द जी उत्तरी भारत मे भक्ति परम्परा के प्रवर्तक है जो रामानुजाचार्य के शिष्य थे। इनका जन्म 1299 ई. को प्रयाग (उत्तर प्रदेश) में हुआ था।
रामानन्दी सम्प्रदाय की प्रमुख पीठ गलता जयपुर में है। जिसके संस्थापक इनके शिष्य स्वामी कृष्णदास पयहारी थे। इन्होंने केवल दुध का ही सेवन किया है।
स्वामी कृष्णदास पयहारी के शिष्य स्वामी अग्रदास जी ने रैवासा (सीकर) में इस सम्प्रदाय की अन्य पीठ स्थापित की।
इस सम्प्रदाय में भगवान राम की पूजा कृष्ण की भांति रसिक नायक के रूप में की जाती है इसलिए अग्रदास जी के मत को रसिक सम्प्रदाय के नाम से जाना जाता है।
रामस्नेही सम्प्रदाय – स्थापना 1760
रामस्नेही सम्प्रदाय का संस्थापक रामचरण जी का जन्म 1718 ई. में सोढा ग्राम जयपुर (वर्तमान में मालपुरा टोंक) में हुआ था। इनके बचपन का नाम रामकिशन था इनके पिता का नाम बखतराम तथा माता का नाम देऊजी था। गुरू कृपारामजी थे।
इनकी प्रमुख पीठ (समाधि स्थल) शाहपुरा भीलवाड़ा में है। यहां प्रतिवर्ष होली के दूसरे दिन रामस्नेही सम्प्रदाय के लोगों द्वारा फूलडोल उत्सव मनाया जाता है।
रामचरणजी की आध्यात्मिक अनुभूतियां अणर्भवाणी नामक ग्रंथ में संग्रहीत है।
वल्लभा सम्प्रदाय- (1478-1531)
वल्लभा सम्प्रदाय की स्थापना वल्लभाचार्य ने की। इनका जन्म 1478 ई. को चम्पारण, बिहार में हुआ था इनके द्वारा चलाये गए सम्प्रदाय को पुष्टीमार्ग सम्प्रदाय भी कहते है
इस सम्प्रदाय को भागवत सम्प्रदाय तथा मत को पांचरात्र कहा जाता है।
इनकी प्रमुख पीठ- मथुरेश जी (कोटा)
श्री विठ्लदासजी – नाथद्वारा (राजसमंद)
द्वारिकाधीश जी – कांकरोली (राजसमंद)
श्री गोकुलदास जी – कामां (भरतपुर)
मदन मोहन जी – कामां (भरतपुर)
इन मन्दिरों में आठ बार पूजा होती है इस सम्प्रदान का मंत्र श्री कृष्णः शरणं गमं है।
किशनगढ राजवंश इस सम्प्रदाय का अनुयायी था।
वल्लभ सम्प्रदान के पुष्टिमार्गीय वैष्णवों का प्रमुख तीर्थस्थल नाथद्वारा, राजसमंद में है।
महाराणा राजसिंह के समय 1672 ई. में श्रीनाथजी की प्रतिमा सिहाड़ ग्राम (नाथद्वारा) में स्थापित की गई थी। यहां अष्टछाप कवियों के पद गये जाते है जिन्हे हवेली संगीत कहते है।
निम्बार्क सम्प्रदाय-
निम्बार्कचार्य का वास्तविक नाम भास्करचार्य था। इन्होंने नीम के पेड़ के नीचे बैठकर तपस्या की थी। इसलिए यह निम्बार्कचार्य कहलाये। इनके द्वारा चलाये गये मत को द्वैतद्वैतवाद या भेदाभेदवाद के नाम से जाना जाता है। इस सम्प्रदाय की प्रमुख पीठ ध्रुव टीले पर मथुरा में है।
राजस्थान में इनकी मुख्य पीठ सलेमाबाद अजमेर में है। जिसकी स्थापना परशुराम देवाचार्य के द्वारा की गई थी। जहां राधा को श्रीकृष्ण की परिणीता (पत्नी) मानते है।
परशुराम देवाचार्य सीकर जिले के ठिकरिया गांव के निवासी थे।
गौड़ीय सम्प्रदाय-
माध्वाचार्य का जन्म 1238 ई. में कर्नाटक राज्य के पाजक गांव में हुआ था। इन्होंने पूर्ण प्रज्ञ भाष्य की रचना कर द्वैतवाद दर्शन प्रतिपादित किया।
माध्वाचार्य के शिष्य चैतन्य महाप्रभु वैष्णव धर्म के परम प्रचारक थे। जो गौडीय सम्प्रदाय के प्रवर्तक माने जाते हैं।
चैतन्य महाप्रभु- चैतन्य महाप्रभु का जन्म 1486 ई. में पश्चिमी बंगाल के नादियां गांव में हुआ था। गौड़ीय सम्प्रदाय की प्रमुख पीठ- गोविन्ददेवजी का मन्दिर जयपुर में हैं। जिसे राधा-कृष्ण के रूप में पूजा जाता है इस मन्दिर का निर्माण सवाई जयसिंह ने करवाया था।
संत जाम्भोजी-
संत जाम्भोजी का जन्म 1451 ई. मे भाद्रपद कृष्ण अष्टमी (जन्माष्टमी) को नागौर जिले के पीपासर गांव में पंवार वंशीय राजपुत परिवार में हुआ था।
जाम्भोजी के पिता का नाम लोहट जी, माता का नाम हंसादेवी था तथा इनके बचपन का नाम धनराज जी था।
संत जाम्भोजी के द्वारा 1485 ई. में कार्तिक माह की अष्टमी को बीकानेर के सम्भराथल नामक स्थान पर विश्नोई सम्प्रदाय की स्थापना की। और अपने अनुयायियों को 29 (20 + 9) नियम बताये जिस कारण ये विश्वोई कहलाये।
मुकाम गांव (बीकानेर) में इन्होंने 1526 ई में समाधि ली थी जहां अश्विन और फाल्गुन की अमावस्या को मेला लगता है।
इनके मन्दिर को साथरी कहा जाता है।
जांगलू (बीकानेर)- यहां जांभोजी की तीन पवित्र वस्तुएं चिंपी, टोपी एवं भगवा वस्त्र रखे हुए है यहां चैत्र व भाद्रपद की अमावस्या को मेला लगता है।
रोटू (जायल, नागौर)- यहा जांभोजी महाराज जोखे भादू की बेटी उमा (नौरंगी) का भात भरने स्वयं आये थे तथा यहां खेजडियों का बाग लगाया।
जांभोलाव तालाब (फलौदी)- यह जांभोजी द्वारा खुदवाया गया जिसे जम्भ सरोवर भी कहा जाता है।
लालासर (बीकानेर)- यहां हरे वृक्ष के नीचे जाम्भोजी का साथरी बना हुआ जो इनका निर्वाण स्थल है।
लोदीपुर धाम मुरादाबाद ;न्ण्च्द्ध मे अपने प्रवास के दौरान एक खेजडी का वृक्ष लगाया। इसे विश्नोई समाज के लोग पवित्र मानते है।
रामड़ावास पिपाड जोधपुर में अपने अनुयायियों को उपदेश दिये थे।
जाम्भोजी ने जिस स्थान पर उपदेश दिये वह स्थान साथरी कहलाया।
जाम्भोजी महाराज वृक्षों को बचाने के उपदेश दिये इस कारण इन्हे पर्यावरण का वैज्ञानिक भी कहा जाता है।
जाम्भोजी के 29 नियम-
प्रातः काल जल्दी उठकर स्नान करना।
प्रतिदिन सुबह शाम पूजा-अर्चना करना।
प्रतिदिन प्रातः काल हवन करना।
प्राणी मात्र के प्रति दया का भाव।
सदा सत्य बोलना चाहिए।
चोरी नहीं करना चाहिए।
हमेशा शाकाहारी रहना चाहिए।
मांस-मदिरा का सेवन नहीं करना चाहिए।
हरे वृक्ष नहीं काटने चाहिए।
नीले वस्त्र धारण नहीं करने चाहिए
मानव को अपने जीवन मे शालीनता से रहना चाहिए।
अफीम नहीं पीनी चाहिए।
भांग नहीं पीनी चाहिए।
तम्बाकू नहीं पीनी चाहिए।
दान करना चाहिए।
दूसरों का बनाया हुआ भोजन नहीं करना चाहिए।
काम-क्रोध, लोभ, माया, मद से दूर रहना चाहिए।
रज-स्त्री को पाँच दिन तक घर के काम से दूर रहना चाहिए।
प्रसव महिला को सवा माह तक घर के काम से दूर रहना चाहिए।
घर में काम आने वाला ईंधन बीन कर लाना चाहिए।
दूध व पानी को छानकर पीना चाहिए।
दूसरों से व्यर्थ विवाद नहीं करना चाहिए।
क्षमावान एवं गुणरूपी होना चाहिए।
किसी की निन्दा नहीं करनी चाहिए।
अमावस्या के दिन व्रत रखना चाहिए।
गाय, भेड़, बकरी तथा पालतू पशुओं को नहीं मारना चाहिए।
बैल, घोड़ा, ऊँट आदि पशुओं को बदिया नहीं करना चाहिए।
सांयकाल को प्रतिदिन विष्णु भगवान के भजन करने चाहिए।
मनुष्य को हमेशा बड़ों का सम्मान करना चाहिए।
संत जसनाथ जी-
जसनाथ जी का जन्म 1482 ई. में बीकानेर के कतरियासर गांव के जाट परिवार में हुआ था। पिता का नाम हम्मीर व माता का नाम रूपा दे था।
जसनाथ जी 24 वर्ष की उम्र में ब्रह्मचारी मे लीन हो गये। बीकानेर के गोरथ मालिया नामक स्थान पर 12 वर्ष तक कठोर तपस्था की।
सिकन्दर लोदी इनके चमत्कारो से प्रभावित होकर कतरियासर के पास इन्हें लगभग 500 बीघा जमीन दी यहीं पर इन्होने जीवित समाधि ली थी। इन्होंने अपने अनुयायियों को 36 उपदेश दिये। जो सिंभूदडा एवं कोडा ग्रन्थों मे संग्रहित है। जसनाथी सम्प्रदाय के अनुयायी गले में काला धागा पहनते थे। भूगर्भ मे समाधि लेना तथा संसार से विरक्त रहना ही प्रमुख है।
जसनाथी सम्प्रदाय के अनुयायी धधकते अंगारो पर नृत्य करते है जिसे अग्नि नृत्य कहा जाता है
कतरियासर मे प्रतिवर्ष अश्विन शुक्ल सप्तमी को मेला लगता है यह सम्प्रदाय निर्गुणी है इसकी एक पीठ जोधपुर के महामंदिर में है।
संत पीपा-
संत पीपा राजकार्य छोड़कर बनारस चले गये वहां पर रामानंद के शिष्य बन गये।
संत पीपा का वास्तविक नाम प्रतापसिंह खींची था इनका नाम 1425 ई. में झालावाड में हुआ था। पिता का नाम कडवाराव एवं माता का नाम लक्ष्मीवती था ये दर्जी समाज के कुल देवता है इनका प्रमुख मन्दिर समदडी गांव बाडमेर है इनका अन्तिम समय टोडाग्राम (टोंक) में व्यतीत हुआ जहां इनकी गुफा बनी हुई है तथा गागरौण में काली सिंध नदी के किनारे संत पीपाजी की छतरी बनी हुई है।
संत धन्ना-
संत धन्ना का जन्म 1415 ई. को टोंक जिले के धुवन गांव के जाट परिवार में हुआ था। ये रामानन्द के शिष्य थे।
राजस्थान में भक्ति आन्दोलन का श्रेय संत धन्ना को जाता है।
बोरनाडा, जोधपुर में इनका मन्दिर स्थित है। सन्त धन्ना की गुरू भक्ति में विशेष आस्था थी। इन्होंने जाति-पाति, ऊंच-नीच की भावना का विरोध करते हुए ईश्वर भक्ति पर सर्वाधिक बल दिया। सन्त धन्ना की मान्यता थी कि आन्तरिक खोज व मनन से ईश्वरानुभूति सम्भव है।
दादू दयाल जी-
संत दादू दयालजी का जन्म 1544 ई. फाल्गुन शुक्ल अष्टमी वार बृहस्पतिवार को अहमदाबाद में हुआ था। इनके जीवन वृतांत का पता नहीं चलता। जनश्रुति के अनुसार- ये साबरमती नदी में लोदीराम ब्राह्यण को बहते हुए मिले थे। 11 वर्ष की आयु में इनकी भक्ति में आस्था हो गई। गृहस्थी त्यागकर 12 साल तक कठिन तप किया इनके गुरू ब्रह्मानन्द की कृपा से इन्हें सिद्धि प्राप्त हुई और सैकडो शिष्य बन गये।
गुरू ब्रह्मानन्द जी कबीर के शिष्य थे कबीर के जन्म की भांती संत दादूदयाल जी का जन्म हुआ इस कारण इन्हें राजस्थान का कबीर भी कहा जाता है। इनकी मुख्य पीठ नरायना जयपुर में है।
दादूदयाल जी काफी लोकप्रिय होने के बाद इन्हे अकबर ने बुलाया और पुछा कि अल्लाह की जाति क्या है इस पर दादू ने एक दोहा सुनाया-
इश्क अल्लाह की जाति है, इश्क अल्लाह का अंग।
इश्क अल्लाह मौजूद है, इश्क अल्लाह का रंग।।
1585 ई. में राजा भगवनदास ने फतेहपुर सीकरी में इनकी मुलाकात अकबर से करवाई थी
1750 ई. में दादूपंथ, जैतराम जी के समय पांच शाखाओं में विभक्त हो गया।
विरक्तः- घूमते-फिरते उपदेश देने वाले विरक्त कहलाये। दादूदयाल जी ने उपदेश हिन्दी मिश्रित सधुक्कडी भाषा (ढुंढ़ाडी भाषा) में दिये थे। दादूजी हिन्दी, गुजराती व राजस्थानी भाषा के ज्ञाता थे।
खालसाः- खालसा पीठ के संस्थापक दादूदयालजी के पुत्र गरीबदासजी थे। नरैना की शिष्य परम्परा मानने वाले खालसा कहलाये।
उत्तराधेः- दादूजी के एक शिष्य बनवारी दास थे। ये राजस्थान के उत्तर की ओर रतिया (हरियाणा) चले गये उत्तराधे कहलाये।
खाकीः- वह साधु जो छोटे-छोटे दल बनाकर दादूजी के उपदेश देते थे।
नागाः- नागा शाखा के प्रर्वतक दादूजी के शिष्य सुन्दरदास जी थे। जो हमेशा हथियारबद्ध रहते थे। मराठा आक्रमण के समय इन्होंने जयपुर के शासक प्रतापसिंह की सहायता की थी। नागा साधुओ के रहने की जगह को छावनी कहते है।
दादूदयाल जी के प्रमुख 52 शिष्य थे जो 52 स्तम्भ (थाम्बे) कहलाये।
जिनमें इनके पुत्र ‘‘गरीबदास‘‘ एवं ‘‘मिस्किनदास‘‘ के अतिरिक्त सुन्दरदासजी, संतदासजी, जगन्नाथजी, बखना जी, रज्जबजी व माधोदास जी आदि प्रमुख है।
रज्जबजी- ये सांगानेर के पठान थे। विवाह के लिये जाते समय दादूजी की सत्संगी (उपदेश) सुनकर उनके शिष्य बन गये। जो जीवन भर दुल्ले के वेश में दादूजी के उपदेशों का बखान करते रहे।
दादूजी की समाधि (1603 ई.) के पश्चात उनके अनुसार शव को जंगल में पशु-पक्षियों के लिये छोड दिया गया। वहां नरैना में भैराना पहाड़ी पर इनकी प्रमुख पीठ स्थित है।
दादूजी निर्गुण भक्ति के समर्थक थे। इनके सत्संग को ‘‘अलख-दरीबा‘‘ तथा आन्दोलन को निपख आन्दोलन कहा जाता है।
मीराबाई – (1504-1558)
मीराबाई का जन्म 1504 ई. मेड़ता के पास बाजोली गांव में हुआ था। कुड़की गांव (मेडता, नागौर) में मीरा का पालन-पोषण हुआ इनके पिता का नाम रतनसिंह था जो मेड़ता के राव दूदा के पुत्र थे। मीरा का बचपन का नाम पैमल था तथा गुरू गजाधर जी थे मीरा बचपन से ही कृष्ण भक्त थी। इनका विवाह मेवाड के महाराणा सांगा के पुत्र भोजराज के साथ हुआ। विवाह के कुछ समय पश्चात् ही पति 1516 ई. भोजराज का देहान्त हो गया। भोजराज की मृत्यु के बाद मीरा पुनः मेवाड़ से मेड़ता आ गई।
मीरा को पीहर में भी को कृष्ण भक्ति पर यातनाऐं दी गई तो वहां से वृदांवन (मथुरा) तथा बाद में द्धारिका चली गई। जहां कृष्ण को पति मानकर उसकी भक्ति में विलिन हो गई। अन्त में द्धारिका में ही 2 मार्च 1558 को मीरा का देहान्त हो गया।
मीरा ने रैदास को अपना गुरू माना जिसकी छतरी चितौड़गढ़ में स्थित है।
मीराबाई श्री कृष्ण की ‘‘सगुण‘‘ भक्ति करती थी।
मीरा की प्रसिद्ध रचनाः-
सत्यभामा जी नू रुसणो, राग-गोविन्द, मीरा री गरीबी, रुकमणी मंगल, नरजी जी रो मायरो – रतना खाती द्वारा रचित, गीत गोविन्द की टीका, मीरा की पदावती आदि प्रमुख टीकाएं है।
संतचरणदास-
संतचरणदासजी अग्रवाल जाति के थे।
संत चरणदास जी का जन्म डेहरा गांव अलवर में हुआ था इनके बचपन का नाम रणजीत था इनके पिता का नाम मुरलीधर तथा माता का नाम कुंजो था। बाद में गुरू सुखदेव से शिक्षा ग्रहण करके चरणदास बन गये।
इन्होंने अपने अनुयायियों को कुल 42 नियम (उपदेश/शिक्षाऐं) बताये और चरणदारी सम्प्रदाय की स्थापना की।
इस सम्प्रदाय की प्रमुख पीठ दिल्ली में स्थित है। जहां इनका देहान्त हुआ। इस सम्प्रदाय के लोग पीले कपडे धारण करते है।
संत चरणदास जी की सहजोबाई व दयाबाई दो प्रमुख शिष्या थी जिनका जन्म डेहरा गांव अलवर में ही हुआ था।
सहजोबाई ने सहज प्रकाश नामक ग्रन्थ की रचना की।
दयाबाई ने विनय मल्लिका व दया बोध नामक दो ग्रन्थों की रचना की।
संत मावजी-
संत मावजी का जन्म वि.स. 1771 को साबला गांव डूंगरपुर में हुआ इनके पिता का नाम दालम ऋषी तथा माता का नाम केसर बाई था। ये कृष्ण की निष्कलंकी अवतार के रूप में पूजा करते थे इसलिए संत मावजी को निष्कलंकी सम्प्रदाय का प्रवर्तक माना जाता है
मावजी ने सोम, माही जाखम के संगम पर तपस्था कर बेणेश्वर धाम की स्थापना की । बेणेश्वर मन्दिर का निर्माण डूंगरपुर के महाराव आसकरण ने करवाया था। मावजी की प्रमख पीठ साबला गांव डूंगरपुर में है इनकी वाणी ‘‘चौपडा‘‘ ग्रन्थ में संग्रहित है।
संत लालदासजी मेव – (1540-1648)
संत लालदासजी का जन्म अलवर जिले के धोलीदूब गांव में (1540 ई.) हुआ तथा इनकी मृत्यु नंगला जहाज, भरतपुर में हुई। संत लालदासजी के पिता का नाम चांदमल तथा माता समदा था।
शेरपुर (अलवर) में इनकी समाधि बनी हुई ये मेव जाति के लकडहारे थे जिन्होने लालदासी सम्प्रदाय चलाया था। इनके समाधि स्थल शेरपुर में अश्विनी एकादशी एवं माघ पूर्णिमा को मेला लगता है।
संत नवल दासजी-
संत नवलदासजी का जन्म नागौर जिले हर्षोलाव गांव में हुआ था। इनकी प्रमुख पीठ जोधपुर हैं। जिन्होंने नवल सम्प्रदाय चलाया। इनकी वाणी नवलेश्वर अनुभव वाणी में संकलित है
संत हरिदासजी-
हरिदास जी का वास्तविक नाम हरिसिंह सांखला था इनका जन्म नागौर जिले के डीडवाना के पास कापडोद गांव में हुआ था। इनकी समाधि गाढा गांव डीडवाना में बनी हुई है जहां इनकी मुख्य पीठ है। यह पहले एक डाकू थे जो बाद में संत बन गये। इन्हें कलयुग का वाल्मिकी कहा जाता है इन्होनें निरंजनी सम्प्रदाय चलाया इनके द्वारा रचित ग्रन्थ – मंत्रराज प्रकाश, भरदरी संवाद, हरिपुरूष जी की वाणी।
लालगिरी जी-
स्वामी लालगिरी जी का जन्म चूरू जिले में हुआ था। जिन्होने अलखिया सम्प्रदाय (अलढय सम्प्रदाय) चलाया जिनकी प्रमुख पीठ बीकानेर में है। इस संप्रदाय का अलख स्तुति प्रकाश नामक प्रमुख ग्रंथ है।
प्राणनाथजी-
प्राणनाथ जी की मुख्य पीठ पन्ना (मध्यप्रदेश) में है। जिन्होंने परनामी सम्प्रदाय चलाया। आदर्श नगर जयपुर में इनका मन्दिर बना हुआ जहां इनके अनुयायी निवास करते है इनके द्वारा दी गई शिक्षा कुजलम स्वरूप ग्रन्थ में संकलित है।
संत बालनन्दाचार्य जी-
बालानन्द जी का जन्म 1635 ई. में गढमुक्तेश्वर (उत्तरप्रदेश) में हुआ था। इनके बचपन का नाम बलवंत शर्मा था। ये औरंगजेब के समकालीन थे। धर्म के प्रति हानि पहुंचाने वालों के विरूद्ध थे। इन्होने औरंगजेब से 52 मूर्तियों को बचाकर सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया। मेवाड के महाराणा राजसिंह बूंदी के छत्रसाल हाडा शासक, जोधपुर के दुर्गादास राठौड आदि की सेना भेजकर धर्म की सहायता की थी। इसलिए इन्हें लश्कर संत भी कहा जाता है। लोहागर्ल (झुंझुनू) में इनकी प्रमुख पीठ स्थित है।
प्रमुख धर्म एवं सम्प्रदाय तथा उनके प्रवर्तक
धर्म सम्प्रदाय
सन्
संस्थापक/प्रर्वतक
ब्रह्म समाज
1828
राजा राम मोहन राय
ब्रह्मो समाज
1830
केशव चन्द्र सेन
वेद समाज
1864
केशव चन्द्र सेन
प्रार्थना समाज
1867
केशव चन्द्रसेन के सहयोग से एम.जी.रानाडे आत्माराम पाण्डुरंग व देवेन्द्र नाथ ठाकुर ने की थी