आर्य सभ्यता या लौह युगीन सभ्यता (1500-600 ई.पू.)
जोधपुर, विराटनगर – जयपुर
नोह – भरतपुर
सुनारी – झुंझुनूं
जनपद काल-
जनपद का नाम | राजधानी | वर्तमान स्थल |
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शूरसेन जनपद | मथुरा | भरतपुर, धौलपुर, करौली |
जांगल प्रदेश | अहिच्छत्रपुर (वर्तमान का नागौर) | बीकानेर, नागौर |
मत्स्य जनपद | विराटनगर | जयपुर, दौसा, अलवर |
शिवी जनपद | मध्यमिका (यइन्यमिका) – वर्तमान में मध्यमिका के अवशेष चित्तौड़गढ़ जिले के नगरी कस्बे के पास प्राप्त होते है | चित्तौड़, उदयपुर |
अबुर्द देश | चन्द्रावती (माउण्ट आबू) | सिरोही |
मालव जनपद | झालावाड़, टोंक, कोटा, बूंदी |
मौर्यकाल-
- सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में सम्पूर्ण राजस्थान मौर्य साम्राज्य के अन्तर्गत आता है।
- सम्राट अशोक के समय में विराटनगर (जयपुर) महान बौद्ध नगरी के रूप में विख्यात था।
- विराटनगरी से प्राप्त भाब्रू शिलालेख से पता चलता है कि सम्राट अशोक बौद्धधर्म के मानने वाले थे।
- भाबू शिलालेख की खोज 1840 ई. में कैप्टन बर्ट ने की थी।
- विराटनगर के निकट बीजक की पहाडियां स्थित है। जहां बौद्ध स्तूपों के तथा बौद्ध गुफाओं के प्रमाण प्राप्त होते है।
- 7वीं शताब्दी के चित्रांगद मौर्य नामक शासक ने चित्तौड़गढ़ किले का निर्माण करवाया था।
- 734 ई. में मानमौर्य नामक शासक से मेवाड़ के बप्पा रावल ने यह दुर्ग छिन लिया।
- चित्तौड़गढ़ से कर्नल जेम्स टॉड को मानमौर्य का शिलालेख प्राप्त हुआ था। जिसे इंग्लैंड जाते समय टॉड ने समुद्र मे फेंक दिया था।
- 738 ई. कणसव अभिलेख (कोटा) से पता चलता है कि धवल मौर्य नामक शासक कोटा और उसके आस-पास के भू-भाग पर शासन करता था।
गुप्तकाल-
- गुप्त राजवंश की स्थापना चन्द्रगुप्त प्रथम ने की थी।
- गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन कहा जाता है।
- कुमार गुप्त के सिक्कों को ढेर बयाना, भरतपुर से प्राप्त हुआ है।
- इन सिक्कों की कुल संख्या 623 है। ये सिक्के चांदी के बने हुए है।
- इन सिक्कों में अधिकाशं सिक्के मयूर शैली के है।
- 503 ई. पू. में हूण शासक तोरमाण ने राजस्थान में सम्पूर्ण भू-भाग को गुप्तो से छिन लिया।
- तोरमाण के पुत्र मिहिरकुल ने चित्तौड़गढ़ के बाड़ोली गांव में शिव मन्दिरों को निर्माण करवाया था। ये मन्दिर नागर शैली में बने हुए है।
- इन मन्दिरों की खोज 1821 ई. में कर्नल जेम्स टॉड ने की थी।
हर्षवर्धन काल-
- सम्राट हर्षवर्धन भारत के अंतिम हिन्दू प्रतापी शासक कहलाते है।
- 629 ई. में चीनी यात्री हेनसांग (युवांग च्वांग) ने भारत की यात्रा की।
- हेनसांग का यात्रियों का राजकुमार कहा जाता है।
- हेनसांग ने अपनी सम्पूर्ण यात्रा का विवरण अपने ग्रंथ सी-यू-की में किया है।
- हेनसांग ने 634 ई. में विराटनगर (जयपुर) की यात्रा की 641 ई. में हेनसांग ने भीनमाल (जालौर) की यात्रा की थी।
- हेनसांग की भीनमाल यात्रा के दौरान भीनमाल पर चावडा वंश के शासकों का शासन था।
- हेनसांग ने भीनमाल को अपने ग्रंथ में पोलो मिलो नाम दिया था। हेनसांग ने भीनमाल को करोडपतियों का शहर कहा था।
राजपूत काल- 7वीं से 12वीं शताब्दी के मध्य कई राजपूत राजवंशों का उदय हुआ इसलिए इसे राजपूत काल कहा जाता है।
राजपूतों की उत्पत्ति के सिद्धान्त-
- पृथ्वीराज रासौ ग्रंथ के अनुसार (चन्दबरदाई द्वारा लिखित) राजपूतों की उत्पत्ति अग्नि कुण्ड से हुई, जिसके अनुसार ऋषि वशिष्ठ ने आबू पर्वत पर यज्ञ करके 4 राजपूत यौद्धाओं की उत्पत्ति की।
- प्रतिहार गुर्जर प्रतिहार
- परमार – पंवार
- चालुक्य – सोलंकी
- चाहमान – चौहान
- भाट, चारण, मुहणौत नैणसी, सूर्यमल मिश्रण, चन्दरबरदाई इन सभी के अनुसार चौहानों की उत्पत्ति अग्किुण्ड़, या अग्नि वंशीय माना है।
- कर्नल जेम्स टॉड, डॉ. स्मिथ, क्रुक ने राजपूतों को शक, हुण, कुषाण आदि विदेशी जातियों का वंशज बताया।
- पंडित गौरी शंकर हीराचंद ओझा व सी.वी. वैध ने राजपूतों को आर्यों की संतान बताया।
- डॉ. ईश्वरी प्रसाद व डॉ. डी.आर. भंडारकर ने इन्हें विदेशी माना है।
- इतिहासकार कनिंघम ने राजपूतों को कुषाण जाति का वंशज बताया है।
- इतिहासकार स्मिथ ने राजपूतों को प्राचीन भारतीय जनजातियों जैसे – खौंड़ और खरवार का वंशज बताया।
- निम्न सभी ने चौहानों को सूर्यवंशीय बताया है।
- जयानक -पृथ्वीराज विजय
- नयनचन्द्र सूरी – हम्मीर महाकाव्य
- जोधराज – हम्मीर रासौ
- नरपत्ति नाल्ह – बीसलदेव रासौ
- डॉ. गौरी शंकर हीरा चन्द्र औझा
- पं. आसोपा ने इन्हें सांभर झील के चारों ओर रहने के कारण चाहमान बताया है।
चौहान राजवंश- स्थापना – 551 ई.
- चौहानों के मूल स्थान के बारें में अनेक शिलालेख, प्रशस्ति व अलग मान्यताओं के आधार पर विभिन्न मत प्रस्तुत किये है
- चित्तौड़ के मानमौरी शिलालेख 713 ई. की वंशावली के आधार पर महेश्वरदास और भीमदास का उल्लेख मिलता है जो चाहमान शासक भर्तृवद्ध द्वितीय के भी पूर्व पुरुष थे।
- चित्तौड़ के शासक ‘‘त्वष्ट्री‘‘ वंश के थे इसलिए माना जाता है कि चाहमान भी पहले इसी वंश के थे इसी आधार पर इनका मूल निवास स्थान चित्तौड़ माना गया है।
- बिजौलिया शिलालेख के अनुसार सांभर (शाकम्भरी) का प्रवर्तक वासुदेव था तथा चौहान वत्स गौत्र के ब्राह्यण थे।
- पृथ्वीराज विजय ग्रंथ (जयानक) के काल, कल्पदु्रम, कोष, लाडनू आदि लेख में भी जांगलदेश, सपादलक्ष, अछिच्छत्रपुर का वर्णन मिलता है।
- इन सब के आधार पर सर्वसम्मत मत यह माना गया कि चौहान सांभर झील के आसपास रहते थे और इनका मूल पुरुष वासुदेव था।
- वासुदेव का उत्तराधिकारी सामन्तराज हुआ जिसका समय लगभग 817 ई. था क्रमशः नरदेव, जयराम व पुत्र विग्रहराज-I तथा चन्द्रराज-I, गोपेन्द्रराज, दुर्लभराज व इसका पुत्र गुवक-I हुआ (जिसने सीकर में हर्षनाथ 953 ई. में मन्दिर का निर्माण करवाया) जो प्रतिहार नागभट्ट-II का सामन्त था।
- गुवक-I के बाद इसका पुत्र चन्द्रराज-II एवं गुवक-II यहां का शासक बना जिसने अपनी शक्ति बढ़ाने के लिये अपनी बहन कलावती का विवाह कन्नौज के राजा भोजराज से कर दिया था।
- गुवक-II के बाद उसका पुत्र चन्दनराज बना जिसकी रानी आत्म प्रभा योगिक क्रिया में काफी निपुण थी जो प्रतिदिन 1000 दीपक पुष्कर में अपने इष्टदेव शिवजी के सामने जलाती थी।
- चन्दनराज के बाद वाक्पतिराज, विन्ध्यराज और सिंहराज सपादलक्ष के शासक हुए जिन्होंने दिल्ली के तोमर व प्रतिहारों को पराजित किया था।
- सिंहराज के बाद उसका पुत्र विग्रहराज-II शासक बना जिसका समय लगभग 956 ई. था यह चौहान वंश का योग्य एवं प्रभावशाली शासक था।
- इन्होंने अहिलवाड़ा के प्रसिद्ध शासक मूलराज-I को हराकर भड़ौच में अपनी कुलदेवी ‘‘आशापुरा माता‘‘ के मंदिर का निर्माण करवाया था जिसका उल्लेख (983 ई.) हर्षनाथ के अभिलेख से प्राप्त होता है।
- विग्रहराज-II के बाद इसका भाई दुर्लभराज सांभर का शासक बना जिसने नाडोल के महेन्द्र चौहान को हराकर शक्राई लेख में इसे ‘‘महाराजाधिराज‘‘ की उपाधि से सम्मानित किया गया था।
- दुर्लभराज के बाद इसका पुत्र गोविन्द-III सांभर का राजा बना जिसे जयानक द्वारा रचित पृथ्वीराज विजय में ‘‘वैरीघरट्ट‘‘ कहा गया है जिसका अर्थ शत्रु का संहारक होता है।
- इसे फरिश्ता ने गोविन्द-III को गजनी के शासक को मारवाड़ में आगे बढ़ने से रोकने वाला कहा है।
- गोविन्द्र-III के बाद उसका पुत्र वाक्पतिराज-II सांभर का शासक बना जिसने मेवाड़ के शासक अम्बा प्रसाद को मारकर ख्याति प्राप्त की।
- परिणाम स्वरुप इसका पुत्र लक्ष्मण चौहान ने 960 ई. में नाडौल उदयपुर में चौहान वंश की स्थापना की।
- सांभर में वाक्पतिराज.-II के बाद वीर्यराम, चामुण्डराज सिंहट, दुर्लभराज-III विग्रहराज-II पृथ्वीराज-I शासक हुये

साम्राज्य
चौहानों का साम्राज्य निर्माण वासुदेव के काल से आरम्भ हुआ था जबकि चौहानों की शक्ति पृथ्वीराज-I के शासनकाल से शुरू हुई थी-

पृथ्वीराज की प्रारम्भिक विजयः-
- नागार्जुन का अन्त 1178 ई.
- भण्ड़ानकों का दमन 1182 ई.
- महोबा विजय 1182 ई.
- चालुक्य चौहान संघर्ष 1184 ई.
पृथ्वीराज चौहान-I
- विग्रहराज-II का पुत्र पृथ्वीराज-I इस वंश पहला प्रतापी शासक था जिसने ‘‘परम भट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर‘‘ की उपाधि धारण की थी।
अजयराज (1113-1133 ई.)
- पृथ्वीराज चौहान प्रथम का पुत्र अजयराज चौहान हुआ जो इस वंश का दूसरा प्रतापी शासक बना। जिसके शासनकाल को चौहानों के ‘‘साम्राज्य निर्माण‘‘ का काल मानते है।
- अजयराज ने उज्जैन पर आक्रमण कर मालवा के परमार शासक नरवर्मन को परास्त कर उसके सेनापति ‘‘सुलहाणा‘‘ को बन्दी बनाया।
- पृथ्वीराज विजय के अनुसार 1113 ई. के लगभग अजयराज चौहान ने अपने नाम से अजयमेरु नगर (अजमेर) बसाया। तथा अन्हिलवाड़ा (गुजरात) के चालुक्य शासक मूलराज-I को हराकर चांदी व तांबे के सिक्के जारी किये। जिन पर अपनी रानी सोमलवती/सोमलेखा का नाम भी अंकित किया गया था।
- अजयराज ने 1113 ई. में अजमेर की गढ़ बीठली पहाड़ी पर तारागढ़ किले का निर्माण किया जिसे राजपुताना का हृदय राजपुताना की कुंजी आदि नामों से भी जाना जाता है
- ‘‘विशप हैबर‘‘ ने इसे राजस्थान का जिब्राल्टर भी कहा है। किले में घोड़े की मजार, रूठी रानी, उम्मादे की छतरी, मीरान साहब की दरबाह आदि स्थित है
अर्णोराज (1113-1155 ई.)-
- अजयराज का पुत्र अर्णोराज लगभग 1133 ई. में अजमेर का शासक बना।
- शासक बनने के बाद चालुक्य राजा एवं अर्णोराज के मध्य राज्य विस्तार की वजह से दोनों में आपसी मतभेद हो गया कुछ समय बाद दोनों के मध्य संधि हो गई।
- चालुक्य राजा जयसिंह ने अपनी पुत्री कांचनदेवी का विवाह अर्णोराज के साथ कर दिया था जिसका पुत्र सोमेश्वर चौहान था।
- अर्णोराज ने तुर्को एवं मालवा के नरवर्मन का पराजित कर अपने राज्य का विस्तार सिंधु और सरस्वती नदी तक कर लिया।
- 1142 ई. में चौहानों एवं चालुक्य के बीच फिर संधर्ष छिड़ गया उस समय चालुक्य शासक कुमारपाल था।
- जयसिंह सूरी द्वारा रचित ग्रथ प्रबन्धकोष में बताया गया है कि अर्णोराज एवं उनकी पत्नि देवलदेवी (जो कुमारपाल की बहन थी) दोनों के चौपड़ खेलते समय हास्य मुद्रा में एक-दूसरे की निन्दा करने लगे। जिसके कारण चालुक्य कुमारपाल ने अर्णोराज पर आक्रमण कर दिया।
- बिजौलिया शिलालेखा के अनुसार 1145 ई. में अर्णोराज गुजरात की ओर चला तब कुमारपाल ने आबू के निकट उसे परास्त कर दिया अन्त में अर्णोराज कुमार पाल से संधि कर अपनी बहन को हाथी, घोड़ा आदि उपहार देकर कुमार ने विदा कर दिया। इस पराजय के साथ अर्णोराज की प्रतिष्ठा को बड़ी हानि हुई।
- अर्णोराज शैव धर्म का अनुयायी था, परन्तु अन्य धर्मावलम्बियों के प्रति सहिष्णुता की भावना थी अर्थात् अन्य धर्म मानने वाले लोगों के प्रति भी सम्मान था।
- अर्णोराज ने पुष्कर में वराह मन्दिर का निर्माण करवाया तथा तुर्को के साथ हुये भंयकर युद्ध में खून-खराबे को धोने के लिये अजमेर में चन्द्रा नदी के जल को रोकर आनासागर (1137 ई.) झील का निर्माण भी करवाया।
- 1150 ई. में अर्णोराज्य के बड़े पुत्र जग्गदेव ने इनकी हत्या कर दी इसलिए जग्गदेव को ‘‘चौहानों का पितृहन्ता‘‘ भी कहा जाता है।
विग्रहराज चतुर्थ (बीसलदेव) (1158-1163 ई.)-
- विग्रहराज-IV अपने पिता के हत्यारे जग्गदेव को गद्दी से हटाकर 1158 ई. में अजमेर का शासक बना।
- इनका साम्राज्य विस्तार शिवालिक पहाड़ी, सहारनपुर (उत्तरप्रदेश) तक विस्तृत था।
- विग्रहराज-IV ने दिल्ली के तोमर वंशज तथा पंजाब, हरियाणा एवं अन्य प्रदेशों को जीतकर अपने अधिकार में कर लिया था।
- विग्रहराज के दरबार में एक विद्वान सोमदेव था जो एक लेखक और कवि था जिसने ‘‘ललित विग्रह‘‘ नामक नाटक की रचना की थी।
- विग्रहराज-IV ने धार (मध्यप्रदेश) की भांटी अजमेर में एक संस्कृत पाठशाला का निर्माण करवाया जिसे बाद में मुहम्मद गौरी के गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक ने तुड़वाकर अढ़ाई दिन का झोपड़ा में परिवर्तित कर दिया। जो राजस्थान की प्रथम मस्जिद के रूप में जानी जाती है।
- पंजाब शाह नामक सूफी संत का ढाई दिन का उर्स लगने के कारण यह ढाई दिन का झोपड़ा कहलाता है।
- विग्रहराज-IV ने इसके अतिरिक्त अपने नाम पर विशालसर झील तथा बिलासपुर (अजमेर) कस्बे की स्थापना एवं कई दुर्गो का निर्माण भी करवाया था।
- शैव धर्म के अनुयायी होते हुए भी जैन विहार बनवाये उनके उत्सवों में भाग लिया तथा ‘‘धर्मघोष सूरी‘‘ के आदेश से एकादशी के दिन के लिए पशुवध पर प्रतिबंध लगाया।
- इनका शासनकाल सपादलक्ष का स्वर्णकाल कहलाता है।
- यह एक अच्छा विजेता, कवि, साहित्य संरक्षक एवं अच्छा सूझ-बूझ वाला निर्माता था इसलिए इन्हें ‘‘कवि बान्धव/कटिबन्धु‘‘ नामों से जाना जाता था।
- इन्होंने संस्कृत भाषा में हरिकेलि नामक नाटक की रचना की थी।
अपरगांग्य-पृथ्वीराज-II-
- विग्रहराज-IV के पुत्र पृथ्वीराज-II ने अपरगांग्य की हत्या करके पृथ्वीराज-II शासक 1164 ई. बना
सोमेश्वर (1169-77 ई.)
- पृथ्वीराज-II निःसन्तान था उसकी मृत्यु के बाद चाचा सोमेश्वर (अर्णोराज का पुत्र व विग्रहराज-IV तथा अपरांगेय का छोटा भाई था) जो गुजरात में जयसोम और कुमार के दरबार में कार्यरत था इनका विवाह कलचूरी की राजकुमारी कर्पूरदेवी से हुआ था जो दिल्ली के शासक अननपाल की पुत्री थी।
- जिसके पृथ्वीराज-III और हरिराज नामक दो पुत्र हुये थे सोमेश्वर आबू के शासक जैतसिंह की सहायता के लिए गया तो गुजरात के चालुक्य वंशीय भीम-II ने सोमेश्वर की हत्या कर दी।
पृथ्वीराज चौहान तृतीय (1177-1192 ई.)-
- चौहानों का अन्तिम प्रतापी शासक पृथ्वीराज-III था जिसे इतिहास में ‘‘दलपंगूल‘‘ (विश्वविजेता) तथा ‘‘राय पिथौरा‘‘ के नाम से जाना जाता था।
- इनका जन्म 1166 ई. में अहिलवाड़ा, गुजरात में हुआ था पिता की मृत्यु के पश्चात् ये 11 वर्ष की आयु में अजमेर के शासक बने। इनकी माता कर्पूरी देवी जो एक कुशल राजनीतिज्ञ थी इनकी संरक्षिका बनी। इनके पिता का नाम सोमेश्वर था।
- माता कर्पूर देवी का विश्वस्त अधिकारी कदम्बवास (जिसे केमास/कैलाश/केम्बवास भी कहा जाता था) जो राज्य मुख्यमंत्री (एक दहिया राजपुत) था।
- सैनिक कार्य के लिए कर्पूर देवी ने सेनाध्यक्ष पद के लिए सुयोग्य अधिकारी ‘‘भुवनमल्ल‘‘ को नियुक्त किया था। जिसने पृथ्वीराज-III की प्रारम्भिक कठिनाइयों के काल को सुरक्षित रखा था।
- पृथ्वीराज चौहान ने अपने सेनापति भुवनमल्ल की सहायता से नागार्जुन व भरतपुर के भड़ानको को पराजित किया।
- पृथ्वीराज-III जो कई भाषाओं और शास्त्रों का अध्ययन कर चुका था। अपनी माता के निर्देशन में रहकर थोड़े समय में उन्होंने राजकार्य तथा शासक प्रणाली में दक्षता हासिल कर ली थी। जिसका श्रेय-माता कर्पूरदेवी को जाता है।
- 1178 ई. में पृथ्वीराज-III ने राज्य की बागडोर अपने हाथ में ले ली। उस समय राज्य चारों ओर से घिरा हुआ था। तो पृथ्वीराज ने कदम्बवास को हटाकर अपने विश्वस्त अधिकारी प्रतापसिंह को मुख्यमंत्री बनाया।
- इसी काल में अजमेर सम्पन्न और समृद्ध राज्य बन गया था।
प्रारम्भिक विजय
नागार्जुन 1178 ई.-
- पृथ्वीराज-III के शासक बनते ही उसके चाचा अपरगांग्य ने विद्रोह कर दिया जिसे पृथ्वीराज ने परास्त कर उसकी हत्या कर दी। इस कारण अपरगांग्य के छोटे भाई नागार्जुन ने पृथ्वीराज-III के विरूद्ध विद्रोह करके गुड़गांव पर अधिकार कर लिया।
- पृथ्वीराज-III ने (1178 ई. गुड़गांव युद्ध) अपने मंत्री कैमास की सहायता से उसका दमन कर दिया जहां से नागार्जुन भाग निकला उसके बाद उसके सेनापति ‘‘देवभट्ट‘‘ ने गुड़गांव की रक्षा का प्रयत्न किया पर वह भी सफल नहीं हो सका।
भण्ड़ानको का दमन 1182 ई.-
- भण्ड़ानक सतलज प्रान्त से आने वाली एक जाति थी जो गुड़गांव व हिसार के पास आकर रहने लगी थी।
- इनका प्रभाव मथूरा, भरतपुर और अलवर के आसपास प्रदेशों तक बढ़ता जा रहा था।
- पृथ्वीराज ने भण्ड़ानकों के विरूद्ध सैनिक कार्यवाही करके उनका दमन किया।
महोबा विजय 1182 ई.-
- भण्ड़ानकों की वियज ने पृथ्वीराज के राज्य को चन्देलों की सीमा तक मिला दिया जिसमें बुन्देलखंड़, जैजाकमुक्ति, महोबा आदि सम्मिलित थे।
- एक बार पृथ्वीराज-III के सैनिक दिल्ली से युद्ध करके लौट रहे थे। रास्ते में महोबा राज्य में पृथ्वीराज के जख्मीं सिपाहियों को चन्देल राजा परमार्दिदेव ने उन सैनिकों को मरवा दिया।
- अपने सैनिकों की हत्या का बदला लेने के पृथ्वीराज-III विशाल सेना लेकर निकल पड़ा 1182 ई. में सेना ‘‘नरानयन‘‘ नामक स्थान पर अपना डेरा डाल दिया और चन्देल राज्य की बस्ती को लूटना प्रारम्भ कर दिया।
- यह देखकर परमार्दिदेव घबरा गया और उसने शीघ्र ही अपने पुराने सेना नायक आल्हा और ऊदल को राज्य की रक्षा के लिए वापस बुलाया। और दोनों दलों के मध्य ‘‘तुमुल का युद्ध‘‘ (1182 ई.) हुआ जिसमें आल्हा और ऊदल मारे गये और पृथ्वीराज ने फतह हासिल की। इस युद्ध में विजय के पश्चात पृथ्वीराज चौहान ने रायपिथौरा की उपाधि धारण की थी। जिसका विवरण ‘‘जिनपाल की खतरगच्छ पद्धावली‘‘ में मिलता है।
- अन्त में पृथ्वीराज-III अपने विजयी सामन्त ‘‘पन्जुनराय‘‘ को महोबा का अधिकारी नियुक्त कर दिल्ली लौट गया।
चालुक्य-चौहान संघर्ष 1183-84 ई.-
- चालुक्य और चौहानों का वैमनस्य अर्णोराज से ही शुरू हो जाता है लेकिन पृथ्वीराज-III के पिता सोमेश्वर के समय कुछ समय के लिए मधुर थे।
- पृथ्वीराज रासौ के अनुसार पृथ्वीराज-III ने आबू के परमार शासक जैतसिंह की पुत्री इच्छिनी से विवाह कर लिया था। लेकिन गुजरात का राजा भीमदेव-II इच्छिनी से विवाह करना चाहता था भीमदेव विवाह नहीं कर सका तो दोनों के मध्य आपसी संघर्ष हो गया।
- भीमदेव शाकम्बरी को अपने राज्य में मिलाना चाहता था जिसका विस्तार मारवाड़ तक था।
- अन्तः भीमदेव के सेनापति जगदेव प्रतिहार व पृथ्वीराज के बीच 1184 ई. में नागौर युद्ध के दौरान संधि हो गई।
चौहान-गहड़वाल संघर्ष 1187 ई.-
- जयचन्द गहड़वाल कन्नौज का शासक था जयचन्द पृथ्वीराज-III का मौसेरा भाई था वह भी पृथ्वीराज की तरह अपने राज्य का विस्तार करना चाहता था।
- दिल्ली के राजा अनंगपाल के कोई पुत्र नही था (केवल दो पुत्रियां थी कर्पूरदेवी, सुन्दरी बाई)
- Note- कर्पूरदेवी का विवाह अजमेर के सोमेश्वर चौहान और सुन्दरी देवी का विवाह कन्नौज के विजयपाल राठौड़।
- राजा अनंगपाल ने पृथ्वीराज-III को दिल्ली का राजा बना दिया। जयचन्द भी उस समय दिल्ली का राजा बनने का सपना देख रहा था।
- जयचन्द और पृथ्वीराज-III दोनों राजाओं में दिल्ली को लेकर आपस में वैमनस्य पैदा हो गया।
- पृथ्वीराज रासौ के अनुसार पृथ्वीराज और संयोगिता के प्रेम सम्बन्ध को लेकर युद्ध का तात्कालिक कारण बना था।
संयोगिता
- पृथ्वीराज-III व संयोगिता के माया (ननिहाल) दिल्ली में थे एक बार दोनों अपने मामा के घर गये हुये थे। जहां इन दोनों में प्रेम सम्बन्ध हो गया। जिसका पता संयोगिता के पिता जयचन्द को चल गया संयोगिता को जाकर घर ले आया। और पृथ्वीराज-III भी अपने निवास स्थान अजमेर आ गया।
- जयचन्द ने अपने वैमनस्य के कारण अपनी पुत्री का विवाह दूसरे राजा के साथ करने का निश्चय किया और संयोगिता के स्वयंवर का आयोजन किया।
- स्वयंवर का अर्थ- लड़की स्वयं पति/जीवनसाथी चुनती है।
- स्वयंवर समारोह में जयचन्द ने कई राजाओं-महाराजाओं को बुलाया परन्तु पृथ्वीराज-III को इस स्वयंवर में नहीं बुलाया गया।
- जयचन्द ने पृथ्वीराज-III को अपमानित करने के लिए उसकी लौहे की मूर्ति बनवाकर द्वारपाल के स्थान पर लगवा दी जहां पर राजा अपनी जूती-चप्पल निकालते थे। स्वयंवर का समय आया तो संयोगिता ने वरमाला लेकर कई राजा-महाराजा बैठे हुये थे उनके बीच निकलकर अपने प्रेमी पृथ्वीराज-III के गले में वरमाला डाल दी।
- यह देखकर सभी राजा-दंग रह गये और जयचन्द को खरी-खोटी सुनाकर चले गये। जयचन्द ने संयोगिता को कमरे में बन्द कर दिया।
- इस घटना का पता पृथ्वीराज को चला तो वह अपने सैन्य बल के साथ घटना स्थल पर पहुंचकर संयोगिता को उठाकर अपने साथ ले गया जहाँ गान्धर्व विवाह कर लिया।
तुर्को से संघर्ष-
- भारत के उत्तरी-पश्चिमी भाग में मोहम्मद गौरी गजनी का शासक (1173 ई.) बना जिसे शाहबुद्दीन गौरी भी कहा जाता है।
- गौरी अपनी साम्राज्य विस्तार नीति के तहत भारत में अपनी महत्वाकांशा की पूर्ति करने के लिए 1178 ई. में गुजरात लेने का प्रयत्न किया जिसमें गुजरात के शासक भीमदेव-II ने उसे परास्त कर दिया लेकिन गौरी इस पराजय से हताश नहीं हुआ।
- 1181 ई. में सियालकोट दुर्ग का निर्माण करवाया
- 1186 ई. में खसरू मलिक को परास्त कर लाहौर को अपने अधीन कर लिया और अपने राज्य का विस्तार भारत के उत्तरी-पश्चिम भाग तक सुद्धढ़ हो गया।
- गौरी एक वृह्त साम्राज्य का स्वामी बनना चाहता था जिसके लिए दिल्ली और अजमेर प्रमुख थे चौहान ऐसी स्थिति में अपनी शक्ति को बनाये रखने के लिए तुर्क सेना को बाहर निकालाना आवश्यक हो गया था।
- पृथ्वीराज रासौ में चौहान और तुर्को की 21 बार मुठभेड़ होना लिखा है जिसमें चौहानों की विजय बताई गई है
- सुर्जन चरित्र में 21 बार तथा प्रबन्ध चिन्तामणि में 23 बार गौरी की पराजय बताई गई।
तराइन का प्रथम युद्ध (1191 ई.)-
- 1191 ई. में मुहम्मद गौरी ने तबर-ए-हिन्द (सरहिन्द) को अपने अधिकार मे लेकर वहां के काजी जियाउद्दीन को सुपर्द कर दिया।
- गौरी भटिण्डा को भी अपने अधीन करना चाहता था इसी को लेकर पृथ्वीराज-III व गौरी के बीच विवाद हो गया। तब हरियाणा के करनाल जिलें में तराइन के मैदान में 1191 ई. को मोहम्मद गौरी व पृथ्वीराज-III के मध्य भंयकर युद्ध हुआ जिसे तराइन का प्रथम युद्ध कहा जात है। जिसमें गौरी की पराजय हुई थी।
- इतिहासकार मिनहाज-ए-सिराज लिखता है कि गौरी की सेना युद्ध के मैदान से भाग निकली और आगे जाकर तुर्को सेना फिर सम्मिलित हुई।
- पृथ्वीराज-III ने भागती हुई सेना का पीछा नहीं किया। इतिहासकार इसे पृथ्वीराज-III की उदारता मानते है, परन्तु यह उसकी महान भूल थी।
- पृथ्वीराज ने तबर-ए-हिन्द का दुर्ग की जियाउद्दीन काजी से छीन लिया था और उसे बन्दी बनाकर अजमेर ले गया जहाँ से विपुल धन देकर उसे गजनी लौटा दिया।
तराइन का द्वितीय युद्ध (1192 ई.)-
- मोहम्मद गौरी तराइन के प्रथम की पराजय से काफी दुखी हुआ गौरी गजनी पहुँच कर सैनिक जुटाने तथा नये ढंग से युद्ध की तैयारी शुरु कर दी।
- वह इतना व्यस्त हो गया था कि उसके आराम-हराम था उसने अपनी सेना में तुर्क, ताजिक और अफगानों को सम्मिलित करके, 1,20,000 सैनिक संख्या जुटाकर लाहौर मुल्तान मार्ग से उसी मौसम में आ गया जहां उसे करारी हार मिली थी।
- हसन निजामी लिखता है कि- गौरी लाहौर पहुँचा तो उसने पृथ्वीराज के पास सन्देश पहुंचाया की वह इस्लाम धर्म कबूल कर ले या गौरी की अधीनता स्वीकार कर ले।
- पृथ्वीराज ने प्रत्युत्तर कहलाया कि- उसे अपने देश लौट जाना चाहिए, अन्यथा उसकी भेंट युद्ध स्थल में होगी।
- मोहम्मद गौरी पृथ्वीराज-III को छलपूर्वक जीतना चाहता था और इसलिए दुबारा दूत भेजकर उसे यह आश्वासन दिलाया कि वह युद्ध नहीं संधि करना चाहता था।
- पृथ्वीराज मेवाड़ के शासक समरसिंह दिल्ली के गवर्नर गोविन्दराय आदि के साथ संधिवार्ता के भ्रम में थोड़ी सेना लेकर तराइन के मैदान में पहुँचकर रातभर आराम फरमाते रहे। गौरी की सेना आक्रमण के लिए तैयार थी।
- राजपुत सेना सुबह शौच आदि में इधर-उधर बिखरी हुई थी तो गौरी ने अचानक आक्रमण कर दिया राजपुत सैनिक घबरा गये और पृथ्वीराज अपने घोड़े (नाट्यरंभा) पर बैठकर भाग गया, वही शाही सेना ने पृथ्वीराज का पीछा कर सिरसा (हरियाणा) के पास पकड़ कर घायल कर दिया जहाँ से बन्दी बनाकर गजनी ले गये।
- Note- पृथ्वीराज रासौ के अनुसार गौरी एवं चौहानों के मध्य 21 बार तथा नयन चन्द्र सूरी के अनुसार 7 बार युद्ध हुआ था।
- तराइन के द्वितीय युद्ध के पश्चात पृथ्वीराज चौहान ने कुछ समय के लिए मोहम्मद गौरी की अधीनता स्वीकार की इस बात की पुष्टि अजमेर से प्राप्त सिक्कों से होती है जिन पर एक तरफ राय पिथौरा तथा दूसरी तरफ मोहम्मद बिन साम लिखा है।
- पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु के बाद मोहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज के पुत्र गोविन्दराज को रणथम्भौर का शासक बनाया।
ख्वाजा मइनुद्दीन चिश्ती- (जन्म 1143 ई. फारस, अफगानिस्तान)
- मोहम्मद गौरी के साथ अजमेर आये।
- पृथ्वीराज-III के शासनकाल में आये।
- पिता का नाम- गयासुद्दीन अहमद
- माता का नाम- मनहूर
- चिश्ती संप्रदाय के लोगों का रहने का स्थान- खानकाह
- गुरु- पीर, शिष्य-मुरीद, उत्तराधिकारी- वली, मृत्यु- वफात (1235 ई. अजमेर)
- दरगाह की जमीन- जयपुर के महाराजा जगतसिंह ने दी।
- निर्माण शुरू- इल्तुतमिश और पूर्ण- हुमायूं
- 6-9 रज्जब तक उर्स (मेला) लगता है जिसका उद्घाटन भीलवाड़ा का गौरी परिवार करता है।
हम्मीर देव चौहान-
- 1301 ई. में दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने रणथम्भौर दुर्ग पर आक्रमण किया।
- हम्मीर चौहान ने अलाउद्दीन खिलजी के भगोड़े सेनापति मीर मोहम्मद शाह को शरण दी थी इसलिए अलाउद्दीन ने रणथम्भौर पर हमला किया था।
- इस युद्ध में हम्मीर चौहान ने केसरिया किया व इनकी पत्नी रंगदेवी व पुत्री देवलरानी ने जौहर किया।
- इस युद्ध में अलाउद्दीन की सेना का नेतृत्व नुसरत खां व उलुग खां ने किया था परन्तु नुसरत खां इस युद्ध में मारा गया व उलुग खां के नेतृत्व में विजय प्राप्त की गयी।
- हम्मीर चौहान की मृत्यु के बाद राजस्थान में चौहान सत्ता का पतन हो गया।
- Note: अलाउद्दीन खिलजी के समय में सर्वाधिक साके हुए थे।
गुर्जर प्रतिहार राजवंश-
- गुर्जर प्रतिहार स्वयं को राम के भाई लक्ष्मण का अवतार मानते है।
- 8वीं से 10वीं शताब्दी में उत्तर भारत में प्रसिद्ध राजपुत वंश गुर्जर प्रतिहार था। राजस्थान में प्रतिहारों का मुख्य केन्द्र मारवाड़ था पृथ्वीरासौ के अनुसार प्रतिहारों की उत्पत्ति अग्निकुण्ड से हुई थी।
- प्रतिहार, गुर्जर प्रदेश के स्वामी होने के कारण गुर्जर प्रतिहार कहलाये।
- गुर्जर प्रतिहार राजस्थान की सबसे पहली शक्तिशाली राजपूत शक्ति थे।
- प्रतिहारों ने अरब आक्रमणकारियों से भारत की रक्षा की अतः इन्हें ‘‘द्वारपाल‘‘ भी कहा जाता है।
- इन्होंने 7वीं व 11वीं शताब्दी के मध्य सम्पूर्ण उत्तरी भारत की सीमाओं की रक्षा विदेशी आक्रांताओं से की।
- मध्यकाल में राजपूताने के राजाओं द्वारा गुर्जर स्त्रियों को धाय मां के रूप में रखा जाता था।
- जोधपुर के घटियाल शिलालेख से प्रमाणित होता है कि प्रतिहारों का अधिवासन मारवाड़ था जिसके आस-पास का क्षेत्र गुर्जरात्रा कहलाता था।
- चीनी यात्री ह्नेनसांग ने इस गुर्जरत्रा प्रदेश की राजधानी ‘‘पीलो भोलों‘‘ भीनमाल या बाड़मेर बताया है। जबकि इनकी प्रारम्भिक राजधानी मण्ड़ोर थी।
- मुहणौत नैणसी (राजपुताने का अबुल-फजल) के अनुसार गुर्जर-प्रतिहारों की कुल 26 शाखाऐं थी। जिनमें मण्ड़ोर की शाखा सबसे प्राचीन थी। जिसका संस्थापक हरिश्चन्द्र था।
- प्रमुख शाखा- मण्डोर-जोधपुर, भीनमाल-जालौर, कन्नौज-मध्यप्रदेश।
- मण्ड़ोर- मण्ड़ोर के प्रतिहारों की जानकारी शिलालेखों से मिलती है।
- 831 ई. जोधपुर का शिलालेख
- 837 ई. घटियाल शिलालेख
- 861 ई. घटियाल शिलालेख
- हरिश्चन्द्र- उपयुक्त शिलालेखों से जानकारी मिलती है कि हरिश्चन्द्र नाम का एक ब्राह्मण था जिसे ‘‘रोहिलद्वि‘‘ भी कहा जाता था वह प्रतिहारों का एक गुरु था। जो बहुत बड़ा विद्वान पुरुष था।
हरिश्चन्द्र की पत्नि का नाम भद्रा था जिसके चार पुत्र थे क्रमशः- भोगभट्ट
- कक्कुक
- रज्जिल
- दह
इन चारों भाइयों ने मिलकर मण्ड़ोर पर अधिकार कर लिया था भोगभट्ट सबसे बड़ा पुत्र था जबकि मण्ड़ोर के प्रतिहारों की वंशावली ‘‘रज्जिल‘‘ से प्रारम्भ होती है।
नागभट्ट-I-
- नागभट्ट-I रज्जिल का पोता था। जो बड़ा महत्वाकांशी था उसने अपनी राजधानी को मण्डोर से मेवाड़ स्थानान्तरित किया।
- नागभट्ट के दो पुत्र थे- तात, भोज
- तात ने अपने छोटे भाई भोज के पक्ष में राजसिंहासन त्यागकर मण्ड़ोर के पवित्र आश्रम में जाकर धर्माचरण में लग गया।
शीलुक-
- शीलुक लगभग तीन पीढ़ी के बाद मण्डोर के प्रतिहार वंश का शीलुक राजा बना। उसने अपने वल्ल प्रदेश (जैसलमेर के आस-पस का क्षेत्र) के भाटी राजा देवराज को परास्त कर स्वतंत्र सत्ता स्थापित की।
झोट-
- शीतुक के बाद उसका पुत्र झोट मण्डोर के प्रतिहारों का राजा बना तत्पश्चात् झिलादित्य सिंहासन पर बैठा जो अपना राज्य छोड़कर हरिद्वार चला गया जहां उन्होंने अपने प्राण त्याग दिये।
कक्क-
- झीलादित्य के बाद उसका पुत्र कक्क सिंहासन पर बैठा यह एक पराक्रमी एवं विद्वान था जो स्वयं व्याकरण, ज्योतिष, तर्क और विविध भाषाओं का ज्ञाता था।
- जिसके दो रानियां थी- पद्मनी भाटी, दुर्लभदेवी भाटी
- दुर्लभ भाटी के एक पुत्र हुआ जिसका नाम ‘कक्कुक‘ था जो मण्डोर के सिंहासन पर बैठा था कक्कुक के बाद बाउक राजा बना।
बाउक-
- बाउक ने अपने शत्रु नन्दवल्लभ को मारकर मयूर राजा और उनके सैनिकों का संहार किया। बाउक ने 837 ई. की प्रशस्ति में अपने वंश का वर्णन अंकित कराकर मण्डोर के एक विष्णु मन्दिर में लगवाया था बाद में इस शिलालेख को वहां से हटाकर जोधपुर शहर के कोट में लगवा दिया।
कक्कुक-
- बाउक के बाद उसका सौतेला भाई कक्कुक मण्ड़ोर के प्रतिहारों का शासक बना। घटियाल के लेख से जानकारी मिलती है कि उसने मरु, माड़ (जैसलमेर), वल्ल, तमणी (मलानी), अज्ज (मध्य प्रदेश) एवं गुर्जरात्रा प्रदेश पर अधिकार स्थापित कर लिया कक्कुक के रोहिंसकूप शिलालेख में उसके गुणों का उल्लेख मिलता है।
- कक्कुक के उत्तराधिकारी-
- प्राप्त साक्ष्यों के पता चलता है कि 12वीं सदीं के मध्य तक मण्ड़ोर के आस-पस के क्षेत्रों पर चौहानों का प्रमुख स्थापित हो गया था। सम्भवतः अन्य प्रतिहारों चौहानों के सामन्त के रूप में रहकर शासन किया था।
- 1395 ई. में. इन्दा प्रतिहार सामन्तों ने अपने राजा हम्मीर से परेशान होकर राठौड़ वीरम के पुत्र राव चूड़ा को मण्ड़ोर का दुर्ग दहेज में दे दिया था इस घटना के साथ ही प्रतिहारों का प्रभाव समाप्त हो गया । और राठौड़ों का उदय हुआ।
- भीनमाल और उज्जैन व कन्नौज के प्रतिहार-
- इस शाखा का विकास या उद्भव मण्डोर को ही माना जाता है दोनों का घनिष्ठ सम्बन्ध प्रतीत होता है।
नागभट्ट-I (730-760 ई.)-
जालौर शाखा का प्रवर्तक नागभट्ट-I को माना जाता है।
जिसे राम का प्रतीक, मेघनाथ के युद्ध का अवरोधक, इन्द्र के गर्व का नाशक, नारायण की मूर्ति का प्रतीक आदि से विभूषित किया है। इसलिए इस शाखा को रघुवंशी प्रतिहार भी कहते है।
इन्होंने चावड़ों से सर्वप्रथम भीनमाल को जीतकर आबू, जालौर आदि स्थानों पर अपना अधिकार कर पहले अपनी राजधानी भीनमाल फिर उज्जैन को बनाई थी।
सर्वप्रथम 740 ई. के लगभग भीनमाल पर सिन्ध के अरबों का आक्रमण हुआ। जिसे नागभट्ट-I ने सफलतापूर्वक अपने राज्य भीनमाल की तो रक्षा की ही साथ ही भड़ौच पर आक्रमण करने वाले अरबों को पराजित कर वहां भी अपने वंश की सता स्थापित की। और अपने साम्राज्य का विस्तार किया।
इन्होंने नारायण की उपाधि धारण की थी।
वत्स राज (783-795 ई.)-
- इस वंश का प्रतापी शासक नागभट्ट के बाद वत्सराज ओर नागभट्ट-II हुआ।
- वत्सराज देवराज का पुत्र था। जिसे ‘‘रणहस्तिन‘‘ की उपाधि दी गई थी। वत्सराज के शासन काल को जालौर के प्रतिहारों के निर्माण का काल कहा जाता है।
- त्रिपक्षीय संघर्ष – वत्सराज के समय ही कन्नौज की प्राप्ति करने के लिए भारत की तीन बड़ी शक्तियों (पाल+प्रतिहार+राष्ट्रकूट) के मध्य युद्ध हुआ। इसे त्रिपक्षीय संघर्ष माना जाता है।
- पाल- बंगाल
- प्रतिहार- राजस्थान/गुजरात
- राष्ट्रकूट- दक्कन दक्षिण
- इस संघर्ष की शुरूआत गुर्जर प्रतिहार नरेश वत्स राज ने की थी।
- यह युद्ध आरम्भ में वत्सराज तथा बंगाल के पाल शासक धर्मपाल और राष्ट्रकूट नरेश ध्रुव के मध्य हुआ।
- उस समय ‘‘पाटलीपुत्र‘‘ का महत्व समाप्त हो गया था। फलस्वरूप इसका स्थान कन्नौज ने ले लिया यह उत्तर भारत का सर्वाधिक महत्वपूर्ण नगर और गंगा नदी के किनारे होने के कारण व्यापारिक दृष्टि से महत्वपूर्ण उपजाऊ नगर था जिसके लिए तीनों महाशक्तियों की राजनीतिक महत्वाकांशा के लिए कन्नौज संघर्ष का कारण बना जो लगभग 200 वर्षो तक चला था
- कन्नौज पर अन्तिम रूप से विजय गुर्जर प्रतिहार ने हासिल की।
- वत्सराज प्रतिहार जालौर का शासक बना उस समय अरब आक्रमणकारियों का प्रभुत्व स्थापित था जिससे वत्सराज भी सहमा हुआ था।
- 648 ई. के लगभग कन्नौज के शासक हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद कन्नौज का शासन लड़खड़ा गया था। इस लड़खड़ाते हुए शासन का वत्सराज ने लाभ उठाते हुये कन्नौज के शासक ‘‘इंद्रायुद्ध‘‘ को हराकर कन्नौज पर अधिकार कर लिया।
- यह बात बंगाल के शासक धर्मपाल को पसन्द नहीं आई तो वत्सराज को पराजित करने के लिए जालौर पर आक्रमण किया जिसमें वत्सराज की विजयी हुई।
- वत्सराज की बढ़ती हुई शक्ति देखकर दक्षिण राष्ट्रकूट शासक धु्रव-I ने जालौर पर आक्रमण किया जिसमें धु्रव-I की विजय हुई।
नागभट्ट.-II (795-833 ई.)-
- वत्सराज की रानी सुन्दरदेवी से नागभट्ट-II का जन्म हुआ था जिसे भी जालौर के संस्थापक नागभट्ट-II की तरह ‘‘नागावलोक‘‘ कहा जाता था।
- इन्होंने कन्नौज के शासक चक्रायुद्ध को परास्त कर कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया एवं राष्ट्रकूट गोविन्द-III से पराजय मिली।
- ग्वालियर प्रशस्ति के अनुसार आन्ध्र, आनर्त, किरात, तुरुष्क, वत्स और मत्स्य आदि को अपने अधीन कर लिया था।
- इन विजयों के बाद ‘‘परममद्धारक‘‘, ‘‘महाराजाधिराज‘‘ आदि की उपाधि ग्रहण की।
- चन्द्रप्रभ सूरी द्वारा रचित ‘‘प्रभावक चरित्र के अनुसार 23 अगस्त 833 ई. को इनकी मृत्यु हो गई थी। तद्उपरान्त ‘‘रामचन्द्र‘‘ (833-836 ई.) प्रतिहारों का शासक बना जिसके द्वारा कोई सफलता का प्रमाण नहीं मिला। रामचन्द्र के बाद मिहिर भोज शासक बना।
मिहिर भोज (836-885 ई.)-
- इन्हें भोज प्रथम नाम से भी जाना जाता है।
- भोज-I ने अपने पिता रामभद्र की हत्याकर प्रतिहारों का शासक बना। जिसे प्रतिहारों का पितृहन्ता कहा जाता है।
- मिहिर भोज का शासन काल गुर्जर प्रतिहारों का चरम काल कहलाता है।
- भोजदेव के 843 से 881 ई के बीच के शिलालेख मिले है जिनसे जानकारी मिलती है कि चांदी व तांबे के सिक्कों पर ‘‘श्रीभदादिवाह‘‘ अंकित था जो पराक्रम और शत्रुओं से राज्य उद्धार का द्योतक है।
- मिहिर ने राष्ट्रकूट कृष्णा-III से मालवा छीनकर, पाल वंश देवाल एवं विग्रहपाल आदि को हराकर कन्नौज पर अधिकार किया।
- मिहिर भोज ने आदिवराह की उपाधि धारण की थी।
- मिहिर भोज के समय ग्वालियर प्रशस्ति की रचना की गयी थी। इस प्रशस्ति में गुर्जर प्रतिहारों को राम के भाई लक्ष्मण का वंशज कहा गया है।
- मिहिर भोज के समय में 851 ई. ने अरबयात्री सुलेमान ने भारत की यात्रा की इसने मिहिर भोज की अरबो का कट्टर शत्रु कहा था।
- गुर्जर प्रतिहार शासकों ने तुर्की लोगों से तुरूस्क दण्ड नाम कर वसूला था।
- गुर्जर प्रतिहारों ने राजस्थान में 8वीं शताब्दी तक शासन किया इस दौरान उनकी राजधानियां भीनमाल व मंडौर रही।
महेन्द्रपाल-I (885-90 ई.)-
- भोज के बाद उसका पुत्र महेन्द्रपाल-I शासक बना। जिसके 893-909 ई. के ताम्र-पत्रों से जानकारी मिलती है। कि इसका राज्य विस्तार गुजरात के काठियावाड़ तथा राजस्थान का परम्परागत भाग सम्मिलित था।
- महेन्द्रपाल-I का दरबारी विद्वान राजशेखर था जिसने काव्यमीमांसा, कर्पूर मंजरी, विद्धशाल भंजिका, बाल रामायण व बाल भारत नाम ग्रंथों की रचना की।
महिपाल-I (914-943 ई.)-
- महिपाल-I के शासक बनते ही राष्ट्रकूट इन्द्र-III ने कन्नौज पर आक्रमण कर अधिकार कर लिया था।
- जबकी कुछ समय पश्चात राष्ट्रकूट इन्द्र-III को लौट जाने बाद चन्देल हर्ष की सहायात से महिपाल ने वापस कन्नौज पर अधिकार कर लिया। लेकिन कन्नौज अर्थात प्रतिहारों का पतन महिपाल-I के शासनकाल से शुरू हो गया था।
महेन्द्रपाल-II (945 ई.)-
- महेन्द्रपाल-II के समय का प्रतापगढ़ के 946 ई. के लेख से जानकारी मिलती है कि घोटासी का चौहान महेन्द्रपाल-II का सामन्त था।
- महेन्द्रपाल के बाद पुत्र देवपाल गद्दी पर बैठा जिसमें परमभद्धारक, महाराजाधिराज और परमेश्वर की उपाधि से विभूषित किया इस समय तक गुजरात में चन्देलों से अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया था।
- कुछ समय पश्चात देवपाल का पोता राज्यपाल शासक बना तो उस समय महमूद गजनवी ने कन्नौज पर आक्रमण का उनको निर्बल बना दिया।
- इस प्रकार 1093 ई. तक चन्द्रदेव गहड़वाल ने प्रतिहारों से कन्नौज छीनकर प्रतिहारों का अस्तित्व समाप्त कर दिया।
मेवाड़ राजवंश-
- मेवाड़ प्राचीन काल में शिवजनपद, प्राग्वाट, मेदपाट नामों से भी जाना जाता था।
- मेवाड़ रियायत विश्व की प्राचीनतम रियासतों में से एक मानी जाती है जिसका अस्तित्व इतने लम्बे समय तक बना रहा।
- मेवाड़ के शासकों को हिन्दुआ सूरज (हिन्दुआ राजा) भी कहते है।
- 566 ई. में गुहिल (गुहादित्य) नामक व्यक्ति ने गुहिल राजवंश (गहलोत राजवंश) की स्थापना की।
- मेवाड़ के शासक एकलिंगनाथ जी को अपना कुलदेवता अथवा अधिपति मानते थे।
- अल्लट नामक शासक ने मेवाड़ में सर्वप्रथम नौकरशाही का गठन किया था।
- रावल जेत्रसिंह के समय में दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश ने मेवाड़ की राजधानी नागदा पर 1222 से 1229 के मध्य आक्रमण किये। इन आक्रमणों के कारण नागदा पूर्णतः नष्ट हो गया। इसीलिये रावल जैत्रसिंह ने नागदा के स्थान पर चितौड़ को अपनी राजधानी बनाया।
बप्पारावल-
- बप्पारावल का मूल नाम कालभोज था इन्हें बप्पारावल की उपाधि इनके गुरू हरित ऋषि के द्वारा दी गई थी।
- बप्पारावल के शासनकाल में भयंकर अकाल पड़ा तो उन्होंने जनहित के लिए अनेक कार्य करवाये इसलिए इनको बापू (बप्पा) के नाम से पुकारा गया।
- 734 ई. में बप्पा रावल ने मानमौर्य से चित्तौड़गढ़ दुर्ग छीन लिया और उसे अपने साम्राज्य में मिला लिया।
- बप्पा रावल गुहिल वंश के वास्तविक संस्थापक कहलाते है। इन्होंने हरित ऋषि के आशीर्वाद से मेवाड़ राजवंश की स्थापना की।
- बप्पा रावल ने उदयपुर में एकलिंग जी के मन्दिर (लकुंलीश जी) का निर्माण करवाया।
- इन्होंने मेवाड़ में सर्वप्रथम सोने के सिक्के चलाए।
अल्लट-
- अल्लट ने आहड़ को मेवाड़ की दूसरी राजधानी बनाया।
- अल्लट ने हूण राजकुमारी हरिया देवी से विवाह किया यह राजस्थान का प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय विवाह कहलाता है।
- अल्लट ने मेवाड़ में सबसे पहले नौकरशाही का गठन किया।
रणसिंह-
- रणसिंह के शासनकाल में गुहिलवंश दो भागों में बट गया।
- रावल शाखा
- राणा शाखा
- रावलशाखा का निर्माण कर रणसिंह के पुत्र क्षेमसिंह ने चित्तौड़ पर शासन किया।
- रणसिंह के दूसरे पुत्र ने सिसोदा ग्राम बसाकर सिसोदिया वंश की स्थापना की।
जेत्रसिंह-
- जेत्रसिंह ने भूताला के युद्ध (राजसमंद) में इल्तुतमिश को हराया।
- जेत्रसिंह ने चित्तौड़गढ़ को अपनी राजधानी बनाया।
- जेत्रसिंह की मृत्यु के बाद उसके पुत्र तेजसिंह व तेजसिंह की मृत्यु के बाद समरसिंह मेवाड़ की गद्दी पर बैठा।
समरसिंह-
समरसिंह के शासनकाल में उसके एक पुत्र कुम्भकरण ने गुहिलवंश की स्थापना नेपाल में की। और दूसरे पुत्र रावल रतनसिंह ने चित्तौड़ पर शासन किया।
जीव हिंसा पर प्रतिबन्ध – समरसिंह
रावल रतनसिंह (1301-1303 ई.)-
- इनकी पत्नी का नाम रानी पद्मिनी था।
- ये सिंहलद्वीप (श्रींलका) की राजकुमारी थी।
- इनके पिता का नाम गंर्ध्व सेन था व माता का नाम पुष्पावती था।
- रावल रतनसिंह की पत्नी रानी पद्मिनी को प्राप्त करने हेतु दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने चितौड़गढ़ पर आक्रमण किया। इस युद्ध में रावल रतनसिंह ने केसरिया, रानी पद्मिनी ने जौहर किया।
- राजस्थान का सबसे बडा व दूसरा शाखा कहलाता है।
- इस युद्ध में पद्मिनी के चाचा व भाई गौरा व बादल वीरगति को प्राप्त हुए।
- इस युद्ध के पश्चात अलाउद्दीन खिलजी ने चितौड़गढ़ का नाम बदलकर खिज्राबाद रखा।
- रानी पद्मिनी की कथा का वर्णन 1540 ई. में रचित ग्रंथ पदमावत् (लेखक मलिक मोहम्मद जायसी) में मिलता है।
- सिरोही के पण्डित गौरी शंकर हीराचन्द ओझा ने रानी पद्मनी की कहानी को असत्य माना है।
- रावल रतनसिंह की मृत्यु के साथ ही मेवाड़ में रावल शाखा का अंत हुआ।
- इस युद्ध के पश्चात मेवाड़ के सामंतो ने सिसोदा गांव के जागीरदार राणा हम्मीर सिसौदिया को मेवाड़ का नया शासक चुना।
- राणा हम्मीर के नेतृत्व में 1326 ई. में चित्तौड़गढ़ दुर्ग को पुनः जीत लिया गया। इसीलिए राणा हम्मीर सिसौदिया को मेवाड़ का उद्धारक कहा जाता है।
- राणा कुम्भा ने अपनी कीर्ति स्तम्भ प्रशति में हम्मीर को विषमघाटी पंचायन की संज्ञा दी थी।
राणा हम्मीरदेव-
- राणा हम्मीरदेव ने 1326 ई. में मेवाड़ पर अधिकार कर सिसोदिया वंश की स्थापना की।
- हम्मीर को मेवाड़ का उद्धारक व सिसोदिया वंश का संस्थापक कहा जाता है।
- सिंगोली का युद्ध – हम्मीर देव व दिल्ली के शासक मोहम्मद बिन तुगलक के मध्य।
- हम्मीर का कीर्तिस्तम्भ में विषम घाटी पंचानन की उपाधि दी है।
- राणा हम्मीर को गीत गोविन्द पुस्तक की टीका रसिक प्रिया में वीर राजा की उपाधि दी थी।
- राणा हम्मीर के शासनकाल से मेवाड़ के शासक महाराणा कहलाने लगे।
- हम्मीर के बाद उसका जेष्ठ पुत्र क्षेत्रसिंह मेवाड़ का शासक बना।
राणा लाखा (लक्ष्य सिंह) 1382-1421 ई.-
- राणा लाखा के समय में पिछोला झील का निर्माण करवाया गया।
- राणा लाखा के समय में ही जावर (उदयपुर) में चांदी की खदानों की खोज हुई।
- राणा लाखा ने बूंदी के किले को जीतने हेतु प्रण लिया था कि जब तक बूंदी के किले को प्राप्त नहीं कर लूंगा तब तक अन्न ग्रहण नहीं करूंगा।
- राणा लाखा के अनशन को तुड़वाने हेतु मेवाड़ के सैनिकों ने नकली बूंदी का किला बनाकर उस ढहाया।
- यह सिसोदिया वंश के एकमात्र शासक थे। जिसने 62 वर्ष की आयु में मारवाड़ के रणमल की बहन व चूड़ा की पुत्री हंसाबाई के साथ विवाह किया।
- यह विवाह इस शर्त पर करवाया कि मेरी बहन से उत्पन्न संतान ही मेवाड़ का उत्तराधिकारी होगा।
- राणा लाखा के पुत्र राव चूड़ा ने अपनी सौतेले भाई मोकल के पक्ष में सिंहासन को त्याग दिया। राव चूड़ा को मेवाड का भीष्म कहते है।
मोकल (1421-1433 ई.)-
- मोकल का संरक्षक रणमल बना। रणमल ने मोकल की मदद से अपना खोया हुआ मारवाड़ का राज्य प्राप्त किया।
- रणमल राजस्थान का एकमात्र शासक था जिसने मेवाड़ व मारवाड़ एकछत्र शासन किया था।
- मोकल ने चित्तौड़गढ़ के किले में समिद्वेश्वर मन्दिर का पुननिर्माण करवाया। मोकल ने उदयपुर में स्थित एकलिंग जी के मन्दिर का पुननिर्माण करवाया।
- समिद्वेश्वर मन्दिर का निर्माण राजा भोज ने करवाया।
- मोकल की हत्या 1433 ई. में चाचा व मेरा नामक व्यक्तियों ने कर दी।
महाराणा कुम्भा (1433-1488 ई.)-
- कुम्भा की उपाधियां – राणो, रासौ, राजगुरू, चापगुरू, हालगुरू, रूपगुरू, अभिनव भरताचार्य, हिन्दु सुरताण।
- राणा कुम्भा ने 1438 ई. में रणमल की हत्या करवायी।
- सारंगपुर का युद्ध (1437 ई.)- महाराणा कुम्भा ने इस युद्ध में मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी प्रथम को पराजित किया।
- इस विजय के उपलक्ष्य में महाराणा कुम्भा ने 1440-1448 ई. के मध्य चित्तौड़गढ़ दुर्ग में विजय स्तम्भ का निर्माण करवाया।
- विजय स्तम्भ को गरूड स्तम्भ अथवा विष्णु स्तम्भ भी कहा जाता है। विजय स्तम्भ 9 मंजिला है। जिसकी ऊंचाई 122 फीट है।
- स्थापत्य कला का जनक- राणा कुम्भा
- चंपानेर की संधि (1456)- यह संधि मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी प्रथम व गुजरात के सुल्तान कुतुबुद्दीन के मध्य मेवाड़ रियासत के विरूद्ध की गयी थी।
- कुम्भा ने कूटनीति के जरियें इस संधि को विफल कर दिया।
- कुंभा के समय में गुजरात के सुल्तान महमूद बेगड़ा (फतेह खां) ने अचलगढ़ दुर्ग पर आक्रमण किया था। इस आक्रमण के दौरान अंचलगढ़ किले के आसपास के जंगलों में स्थित मधुमक्खियों ने अचानक हमला करके महमूद बेगड़ा की सेना को पीछे हटने पर मजबूर किया तभी से अंचलगढ़ को भंवराथल नाम से जाना जाता है।
- कुंभा के संगीत गुरू सारंग व्यास थे।
- कुंभा द्वारा लिखित प्रमुख संगीत ग्रंथ – संगीत राज, संगीत मीमांसा, सूड़ प्रबंध, गीत गोविन्द की टीका रसिकप्रिया, संगीत रत्नाकर की टीका – कामराज रतिसार, चण्ड़ीशतक की टीका।
- कुंभा का प्रमुख शिल्पी ‘मंडन‘ था जिसके निर्देशन में कुंभा ने अनेक भवनों का निर्माण करवाया था।
- वीर विनोद नामक ग्रंथ के अनुसार मेवाड़ के 84 दुर्गों में से 32 दुर्गों का निर्माण अकेले कुंभा ने करवाया था।
- कुंभा द्वारा निर्मित प्रमुख दुर्ग-
- कुंभलगढ़ बंसतगढ़
- कटारगढ़ भोराट
- अचलगढ़ मचान
- कुंभा ने निम्न मंदिरों का निर्माण करवाया-
- कुंभ श्याम मन्दिर- चित्तौड़गढ़, अचलगढ़, कुंभलगढ़
- श्रृंगार चंवरी मन्दिर- चित्तौड़गढ़
- कुशालमाता व बैराठमाता मन्दिर- बदनौर (भीलवाड़ा)
- महाराणा कुंभा के प्रमुख शिल्पी मंड़न द्वारा लिखित पुस्तके-
- रूपमंड़न वास्तु मंड़न
- शोकुन मंड़न देवता मूर्ति प्रकरण
- राजवल्लभ मंड़न
- मंड़न के भाई ‘‘नाथा‘‘ ने वास्तु मंजरी नामक पुस्तक लिखी। मंड़न के पुत्र गोविन्द ने निम्न किताब लिखी। द्वारदीपिका, कलानिधि, उद्वारधारणी ये सभी किताबें वास्तुशास्त्र से संबंधित है।
- महाराणा कुंभा ने एकलिंग महातम्य नामक ग्रंथ की रचना की थी। इस ग्रंथ को कान्हा व्यास ने पूर्ण किया था।
- महाराणा कुंभा की हत्या उसके पुत्र ऊदा (उदयकर्ण) द्वारा कर दी गयी। यह हत्या कुंभलगढ़ दुर्ग में हुई।
- ऊदा ने मालवा में शरण ली व वहीं पर बिजली गिरने से ऊदा की मृत्यु हो गयी।