Folk Instruments of Rajasthan | राजस्थान के लोक वाद्य यंत्र

0
87
Folk Instruments of Rajasthan

राजस्थान में लोक संगीत लोक नृत्य एवं लोक नाट्यों का प्रचलन सम्भवतः सैकडों वर्षों से है। प्राचीन काल से ही वाद्य यंत्रों का सम्बन्ध देवी- देवताओं के साथ स्थापित किया जाता रहा है। जैसे कृष्ण के साथ बांसुरी, सरस्वती के साथ वीणा शिव के साथ डमरू रहा है। जो संसार का सबसे प्राचीन वाद्य यंत्र माना जाता है।

लोक वाद्य यंत्रों को चार भागों मे बांटा गया है।

  • सुषिर वाद्य यंत्र (जो फूंक मारकर बजाये जाते है)
  • तत् वाद्य यंत्रों (जो तार के बने होते है)
  • अवनद्ध वाद्य यंत्र (जो चमडे के बने होते है)
  • घन वाद्य यंत्रों (जो धातु के बने होते है)

सुषिर वाद्य यंत्र-

  • अलगोजा- यह राजस्थान का लोक वाद्ययंत्र है। जो बांसुरी के समान होता है। एक अलगोजा छोटा व एक बड़ा होता है। वादक दो अलगोजे अपने मुंह में रखकर एक साथ बजाता है। यह पीतल व लकड़ी दोनों का बनाया जाता है। इसके प्रमुख कलाकार धोरे खाँ जो बाड़मेर के निवासी है। जयपुर के पद्मपुरा गांव के रामनारायण चौधरी नाक से अलगोजा बजाने मे निपुण थे।
    • यह जैसलमेर, बाड़मेर, जोधपुर, पाली, टोंक, सवाई माधोपुर आदि क्षेत्रों में प्रमुख रूप से बजाया जाता है। इस वाद्ययंत्र का सर्वाधिक प्रयोग भील व कालबेलिया जनजाति के द्वारा किया जाता है।
    • अलगोजा को वीर तेजाजी की जीवन गाथा, डिग्गीपुरी का राजा, ढोला मारू नृत्य और चक्का भवाई नृत्य में भी बजाया जाता है।
    • यह वाद्ययंत्र केर, बांस तथा सुपारी की लकड़ी से बनाया जाता है।
  • सींगा-सींगी- यह हिरण व भैंस के सींग का बना वाद्य यंत्र है जिसे होठो पर रखकर ध्वनी निकाली जाती है।
  • पूंगी- यह घीया तूम्बे की बनी होती है। जिसका ऊपरी हिस्सा गोल होता है। जिसमे दो नालियाँ लगाई जाती है। एक नाली में 9 छेद होते है दूसरी में 6 छेद होते है। यह कालबेलिया व आदिवासी भील जनजाति का प्रसिद्ध वाद्ययंत्र है।
  • मशक- यह चमड़े की सिलाई करके बनाया जाता है। इसके एक तरफ दो नालियाँ लगी हुई होती है। जिनसे ध्वनि निकाली जाती है। इसकी ध्वनि पूंगी की तरह होती है। इस वाद्ययंत्र का प्रयोग भैरवजी के भोंपे करते है। यह बकरे की खाल से बना एक थैलेनुमा आकृति होती है। यह अवनद्ध एवं सुषिर दोनों की श्रेणी में आता है। इसके प्रसिद्ध कलाकार श्रवण कुमार है।
  • सतारा- यह अलगोजा, बांसुरी तथा शहनाई का समन्वित रूप है। जिसमें अलगोजे की तरह दो लम्बी बांसुरी होती है। जिनमें 6-6 छेद होते है। जिनसे आवश्यकतानुसार ध्वनि परिवर्तन की जा सकती है। यह जैसलमेर व बाड़मेर का प्रसिद्ध वाद्ययंत्र है।
  • बांसुरी/बंशी/मुरली- बांसुरी अत्यंत प्राचीन वाद्य यंत्र है जिसका वर्णन वैदिक साहित्य, ऋग्वेद, उपनिषद एवं पुराण मे मिलता है। यह लकड़ी को खोखली करके बनाई जाती है। जिसमें 5-6 छेद होते है। यह पूर्वी राजस्थान का लोकप्रिय वाद्य यंत्र है। बांसुरी के प्रसिद्ध कलाकार हरि प्रसाद चौरसिया थे।
  • मोरचंग- यह लोहे का वाद्य यंत्र है यह सुषिर व घनवाद्य यंत्र (धातु) दोनों की श्रेणी मे आता हैं। इसका आकार कैंची जैसा होता है। संगीत परिजात भाष्य में इसे मुखचंग बताया गया है। इसमे बांसुरी की तरह लम्बी ध्वनियाँ निकाली जाती है। इस बांसुरी में दो छड़ लगी हुई होती है। इसका प्रयोग लंगा जाति द्वारा किया जाता है
  • शहनाई- यह शीशम व सागवान की लकड़ी की बनी होती है। इसका पत्ता ताड़ के पत्ते से बना होता है। सुषिर वाद्ययंत्रों में इसे सर्वश्रेष्ठ माना गया है। शहनाई की ध्वनि को ताललय करने के लिए सदैव दो व्यक्ति साथ बजाते है। यह सम्भवतः सभी मांगलिक अवसरों पर बजाया जाने वाला वाद्ययंत्र है। इसे नफीरी/सुन्दरी भी कहा जाता है। शहनाई का प्रसिद्ध वादक बिस्मिल्लाह खाँ थे। मांगी बाई मेवाड़ की प्रसिद्ध शहनाई वादिका और मांड गायिका है।
  • करणा- यह 7-8 फीट लम्बी पीतल, कांसे की नली होती है जिसका आकार चिलम के समान होता है। यह सुषिर वाद्यों मे सबसे बडा लोक वाद्ययंत्र है।
  • नागफणी- यह पीतल या कांसे की बनी होती है। जिसका आकार नाग (सांप) के समान होता है।
  • बांकिया- यह पीतल का बना होता है। यह मुख्य रूप से सरगडा जाति के द्वारा बजाया जाने वाला वाद्ययंत्र है।
  • नड- यह मशक का दूसरा रूप है लेकिन इसे मुंह पर टेड़ा रखकर बजाया जाता है। इसका सर्वाधिक प्रयोग लंगा व रेबारी जाति के लोग करते है। यह पश्चिम राजस्थान का प्रसिद्ध लोकवाद्य यंत्र है। नड के प्रसिद्ध कलाकार बांसवाड़ा के करणा भील है।
  • रणभेरी/भूंगल- इसका प्रयोग युद्ध के मैदान में किया जाता है।
  • तुरही- यह घनवाद्ययंत्र है जो फूंक मारकर बजाया जाता है। जिसका प्रयोग विवाह के अवसर पर बैंड-बाजों में भी किया जाता है।
  • शंख- शंख (बडा घोंघा) एक समुद्री जीव है।

नोट- तुरही, करूणा, नागफनी, बांकियां, मोरचंग, आदि वाद्ययंत्र घन व सुषिर दोनोें की श्रेणी में आते है।

तत् वाद्य यंत्र-

  • इकतारा- यह भगवान नारद मुनि का वाद्य यंत्र है। एक गोल तूम्बे पर बकरे की खाल से चमड़ा मढ़ दिया जाता है। बीच में एक डंडी फंसा दी जाती है। जिस पर दो खुंटियाँ लगी होती है। जिनमें एक तार बंधा हुआ होता है। इकतारा का प्रयोग नाथ एवं साधु-सन्यासी द्वारा किया जाता है।
  • रावणहत्या- यह भोंपों का मुख्य वाद्ययंत्र है। जो अर्द्धनारियल की कटोरी पर चमड़ा मढ़कर बनाया जाता है। जिसमें एक बांस की डंडी फंसाई जाती है। उस डंडी के ऊपर 12 खुंटियाँ होती है। जिनमे 9 तार बंधे होते है। यह वायलिन की तरह गज से बजाया जाता है। गज घोड़े के पूँछ के बालों की बनी हुई होती है। जिसके अन्तिम सिरे पर घुँघरू बांधे होते है। इस लोक वाद्य के साथ पाबूजी, गोगाजी, तेजाजी आदि लोक देवताओं की फड़ बांची जाती हैं।
  • दौतारा- इसका आकार इकतारा से मिलता-जुलता है। इसमें दो तार लगे होते है इसे बांये हाथ की अंगुलियों की सहायता से बजाया जाता है।
  • कामायचा- यह मांगणियार व मुस्लिम यह सांरगी के समान एक लोक-वाद्य होता है जिसका प्रयोग मुख्य रूप से बाड़मेर व जैसलमेर में किया जाता है। इसमे 12 तार होते है। इसका प्रसिद्ध वादक साकर खां मांगणियार को माना जाता है।
  • सारंगी- यह सभी तत्तवाद्य यंत्रों में सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। यह कैर, सागवान, शीशम की लकड़ी को खोखला करके बनाई जाती है। इसमे बकरे की आंत के 27 तार लगे होते है। जिनका वाद्न गज से किया जाता है। गज घोड़े की पूंछ के बालों की बनी होती है इसका मुख्यतः प्रयोग जोगियों द्वारा किया जाता है। गोपीचन्द, भृर्तहरि, निहाल दे, इनके अलावा इसका प्रयोग बाड़मेर व जैसलमेर की लंगा और मांगणियार जाति के लोग करते है। राजस्थान में सांरगी दो प्रकार की होती है।
    • सिंधी सारंगी
    • गुजराती सारंगी
      • सिंधी सारंगी में तारों की संख्या अधिक होती है जबकि गुजराती सारंगी में केवल सात तार ही होते है।
  • चौतारा/तन्दूरा/तम्बूरा – यह इकतारा, दौतारा का दूसरा रूप है लेकिन इसमें चार तार लगे हुए होते है। कामड़ जाति के लोगों द्वारा इसका प्रयोग किया जाता है।
  • भपंग- यह अलवर जिलें के जोगी सम्प्रदाय का मुख्य वाद्ययंत्र है। इसका आकार डमरूनुमा है। यह वाद्ययंत्र कांख में दबाकर बजाया जाता है। इसका अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कलाकार जहूर खां मेवाती है। जिसे भपंग का जादूगर भी कहा जाता है।
  • निशान- यह एक बांस की लकड़ी पर दो तार कसकर बांधे जाने वाला एक वाद्ययंत्र है। लेकिन इसका आकार घनवाद्य यंत्र के नागफणी से मिलता-जुलता है।
  • रवाज- यह मेवाड़ में राव व भाट जाति के द्वारा बजाया जाता है। इसका आकार सारंगी जैसा होता है। इसमें 12 तार होते है।
  • चिकारा- यह लकड़ी को खोखला करके बनाया जाता है इसके ऊपर दो-तीन तार बंधे होते हे। जिसे गज से बजाया जाता है।
  • जन्तर- दो गोल तुम्बों में बांस की डंडी फंसाकर बनाया जाता है। तुम्बें के ऊपर मगरमच्छ की खाल के 22 पर्दे मोम से चिपकाये जाते है। पर्दो के ऊपर 5-6 तार लगे होते है। जिन्हे गज से बजाया जाता है। यह बगड़ावत गुर्जरों का प्रसिद्ध वाद्ययंत्र है। अर्थात देवनारायणजी के गुर्जर जाति के भोंपे इसी वाद्ययंत्र का प्रयोग करते है।
  • अपंग- यह मेवात क्षेत्र का प्रसिद्ध वाद्ययंत्र है। जो तूबें को काटकर बनाया जाता है। तूबाँ दोनो ओर से खुला होता है। एक सिरे पर चमड़ा मढ़ दिया जाता है। चमड़े में से बांस की डंडी तक तार बांध दिये जाते है।
  • दुकाको- यह लोक वाद्य भीलों द्वारा दीपावली के अवसर पर घुटनों मे दबाकर बजाया जाता है।

अवनद्ध वाद्य यंत्र-

  • नौबत- यह मुख्यतः मन्दिरों में बजाया जाने वाला वाद्य यंत्र है। इसकी कुंडी लगभग 4 फीट गहरी होती है। जिस पर भैंसे की खाल का चमड़ा मढ़ा होता है। जिसे बबूल व शीशम की लकड़ी की खपच्चियों से बजाया जाता है।
  • ढोलक- ढोलक लकड़ी को खोखला करके बनाया जाता है। जिसके दोनों तरफ बकरे की खाल से चमड़ा मढ़ा हुआ होता है। यह राणा, मिरासी तथा भाट जाति का प्रमुख वाद्य यंत्र है। भीलों के गैर नृत्य, शेखावटी के कच्छी घोड़ी नृत्य और जालौर के ढोल नृत्य में विशेष रूप से इसका प्रयोग किया जाता है।
  • खंजरी- यह आम की लकड़ी का बना होता है। इसके गोल घेरे पर तश्तरियां लगी हुई होती है। इसे बांये हाथ में पकड़कर दाहिने हाथ से बजाते है। खंजरी चंग और डफ की श्रेणी का छोटा वाद्य यंत्र है। कामड़, भील, नाथ एवं कालबेलियां जाति इसका सर्वाधिक प्रयोग करती है।
  • नगाड़ा- नगाड़ा मुख्यतः रामलीला व नौटंकी, ख्याल में बजाया जाता है। तथा लोक नाट्यो में नगाडे़ के साथ शहनाई बजाई जाती है। इसमें दो नगाड़े होते है। बड़े को नर व छोटे को मादा कहा जाता है। जो भैंस की खाल से मढे़ हुए होते है। यह युद्ध के समय अधिक बजाया जाता है। ढोली, राणा, मीरासी जातियाँ इसका सर्वाधिक प्रयोग करती है। पुष्कर के रामकिशन सौलंकी प्रसिद्ध नगाड़ा वादक है।
  • मृदंग/पखावज- यह मुख्यतः रावल जाति के लोग बजाते है। इसका एक मुंह सकड़ा व दूसरा मुंह चौड़ा होता है। इसके एक मुंह पर स्याही तथा दूसरे मुख पर आटा चिपकाकर बजाया जाता है। इसका प्रसिद्ध कलाकार पंडित रामनारायण है।
  • मांदल- यह मोलेला राजसमंद का प्रसिद्ध वाद्य है। इसका आकार मृदंग के समान होता है। लेकिन यह मिट्टी का बना होता है। इसके एक सिरे पर स्याही का लेप होता है तथा दूसरे सिरे पर जौ का आटा चिपकाकर बजाया जाता है। इस वाद्ययंत्र के साथ थाली भी बजायी जाती है। भीलों का गवरी नृत्य थाली व मांदल की ताल पर किया जाता है।
  • डमरू- यह भगवान शिव का वाद्य यंत्र है जो संसार का सबसे प्राचीनतम वाद्य यंत्र है डमरू के छोटे रूप को डुग-डुगी कहते है।
  • डेरू- डेरू डमरू के आकार जैसा डमरू से बडा पर ढोल से छोटा वाद्य यंत्र है।
  • चंग- शेखावाटी क्षेत्र में होली के अवसर पर बजाया जाता है जो लकड़ी गोल घेरे के रूप मे होता है। घेरे पर बकरे की खाल मढ़ा होता है। जिसे हाथ से बजाया जाता है।
  • ताशा- ताशा को तांबे की चपटी परात पर बकरे का पतला चमड़ा मढ़कर बनाया जाता है। यह मांगलिक अवसर एवं विशेष रूप से मोहर्रम (ताजिया) के समय मुस्लिम समाज द्वारा बजाया जाता है। यह घन एवं अवनद्ध वाद्ययंत्र की श्रेणी में शामिल है।

घन वाद्य यंत्र-

  • घुंघुरू- यह सम्भवतः सभी लोक नृत्यों में काम आने वाला प्राचीन वाद्ययंत्र है। जिसे पैरों में बांधकर ध्वनि उत्पन्न की जाती है।
  • लेजिम- लेजिम का आकार धनुष के समान होता है। जिसमें छोटी-छोटी गोल तश्तरियाँ लगी होती है। इसका प्रयोग गरासिया जनजाति करती है।
  • मंजीरा- यह वागड़ क्षेत्र का प्रसिद्ध वाद्य यंत्र है। यह पीतल, तांबे या कांसे धातु से बनी दो कटोरीनुमा आकार का वाद्य यंत्र है। मंजीरा वाद्य यंत्र हमेशा जोड़े में बजाया जाता है जिन्हें आपस में घृषण करके ध्वनि उत्पन्न की जाती है। इसका प्रयोग तेरहताली नृत्य में किया है।
  • झालर- यह पीतल का बना वाद्ययंत्र है जिसका प्रयोग मंदिरों में तथा बैकुंठी (शव को श्मशान ले जाते समय) होता है।
  • खडताल- यह भारत का सर्वत्र प्रचलित वाद्ययंत्र है इसमें दो लकड़ी के टुकड़ों के बीच में पीतल की छोटी-छोटी गाल तश्तरियाँ लगी होती है। इसे एकतारे के साथ बजाया जाता है। इसका प्रसिद्ध कलाकार सद्दीक खाँ मागिणयार है जिसे खडताल का जादूगर कहा जाता है।
  • झांझ- यह शेखावटी का प्रसिद्ध वाद्ययंत्र है। जिसका प्रयोग कच्छी घोड़ी नृत्य में किया जाता है। इसका आकार मंजीरे से बड़ा होता है।
  • घड़ियाल/घंटा/टाली- इसका प्रयोग मंदिरों मे किया जाता है।
  • चिमटा/चिंपिया- यह रसोई घर के चिमटे से थोड़ा बड़ा होता है। जिसके दोनों और खंजरी जैसी छोटी झांझे लगी होती है। इसका प्रयोग साधु संतों द्वारा किया जाता है।
  • थाली- यह कांसे की बनी हुई एक थाली होती है। जिसके किनारें को छेदकर उसमें रस्सी बांधकर अंगूठे से लटकाकर लकड़ी के डंडे से बजायी जाती है। इसका प्रयोग गवरी नृत्य में किया जाता है।
  • भरनी- मटके के ऊपर कांसे की प्लेट ढ़ककर उसे डंडियों की सहायता से बजाया जाता है मुख्य रूप से इसका प्रयोग मेवाती जिलों मे किया जाता है।
  • श्रीमंडल- यह वाद्ययंत्र लकड़ी का बना होता है। लकड़ी के स्टेण्ड पर पाँच-छः आड़ी डंडियाँ होती है। जिनके दोनों तरफ गोल-गोल पीतल की तश्तरियाँ लगी होती है। जिसका वादन मुख्यतः वैवाहिक अवसर पर किया जाता है।
  • रमझोल- रमझोल वाद्ययंत्र चमड़े की एक पट्टी पर छोटे-छोटे घुंघुरूओं को लगाकर बनाया जाने वाला एक वाद्य यंत्र है। जो घुटने से टखने तक बांधा जाता है। यह अवनद्ध एवं घन वाद्य यंत्र दोनों की श्रेणी शामिल है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here