भारत में नाट्य की परंपरा अत्यंत प्राचीन काल से चली आ रही है। भरत मुनि ने (ई.पू. तृतीय शताब्दी) अपने नाट्यशास्त्र में इस विषय का वर्णन किया है। नाट्यशास्त्र में वर्णित कथा से पता चलता है, कि देवताओं की प्रार्थना पर ब्रह्मा ने समस्त मानवों के मनोरंजनार्थ नाट्य की रचना की। लोक नाट्य का लोक जीवन से घनिष्ट सम्बन्ध है। लोकनाट्यों का कथानक प्रायः ऐतिहासिक, पौराणिक व सामाजिक होता है। बंगाल के लोकनाट्य जात्रा और कीर्तन का आधार धार्मिक आख्यान होता है। उत्तरप्रदेश की रामलीला और रासलीला की पृष्ठभूमि धार्मिक है। नौटंकी और स्वांग की कथावस्तु समाज से अधिक संबंध रखती है।
ख्याल- अर्थ- कल्पना व खेल
- 18वीं सदी के प्रारम्भ से ही राजस्थान मे लोक नाट्यों के नियमित रूप से सम्पन्न होने के प्रमाण मिलते है जिन्हे ख्याल कहा जाता था।
- इन ख्यालों की विषयवस्तु पौराणिक या किसी पुराख्यान से जुडी होती है। इनमे ऐतिहासिक व वीराख्यान के तत्व भी शामिल होते है।
- भौगोलिक परिस्थितियों के कारण इन ख्यालों ने भी परिस्थिति के अनुसार अपना अलग-अलग रूप ग्रहण किया।
- ख्यालों से आधुनिक नाट्यों का जन्म हुआ।
- ख्याल एक संगीत प्रधान लोकनाट्य है। जिसमे दृश्य, पोशाक एवं पात्र के प्रतिनिधित्व मे प्रतीकात्मकता का अधिक प्रयोग होता है
- लोक नाट्य के प्रारम्भ मे इसका सूत्रधार हलकारा आता है। जिसके बाद ख्याल की प्रस्तुति दी जाती है।
- ख्याल राजस्थान की सबसे लोकप्रिय नाट्य विद्या है।
तुर्रा कलंगी ख्याल-
- मेवाड के तुकनगीर व शाह अली नामक दो मुस्लिम पीरों ने 400 साल पहले चन्देरी (मध्यप्रदेश) में इस ख्याल की रचना की। तथा इसे तुर्रा कलंगी ख्याल कहा,
- इनके संगीत दंगल से प्रभावित होकर चन्देरी के राजा ने तुकनगीर को तुर्रा (शिव प्रतीक) व शाहअली को कलंगी पार्वती प्रतीक भंेट की।
- कुछ क्षेत्रों में इसे माच का ख्याल कहते है।
- तुर्रा को महादेव शिव और कलंगी को पार्वती का प्रतीक माना जाता है
- इन दोनो कलाकारों ने तुर्रा कलंगी के माध्यम से शिव शक्ति के विचारो को लोक जीवन तक पहुंचाया।
- तुर्रा कलंगी ख्याल चित्तौड, घौसुन्डा, निम्बाहेडा क्षेत्रों मे अधिक लोकप्रिय रहा है
- प्रमुख कलाकार- चेतराम, सेठूसिंह, हमीद बेग, ताराचन्द, ओमकार सिंह तथा जयदयाल सोनी एक विख्यात एवं प्रतिभाशाली कलाकार थे वर्तमान समय मे नाना लाल गन्धर्व इस कला के प्रसिद्ध कलाकार है।
- इस लोकनाट्य का मंचन 20 फीट ऊँचे दो अलग-अलग महलनूमा मंच जो कि आमने-सामने बनाए जाते है ये मंच सुन्दर ढंग से सजे होते है। जिस पर कलाकार प्रस्तुति देते है।
- इस ख्याल मे चंग नामक लोकप्रिय वाद्य बजाया जाता है इनकी काव्यमंय रचनाएं दंगल कहलाती है इनके संवादों को बोल की संज्ञा दी जाती है इसकी प्रकृति गैर व्यावसायिक किस्म की होती है
- सर्वप्रथम चित्तौड़ में सहेडूसिंह व हम्मीद बेगम ने इसे प्रारम्भ किया।
- इसमें तुर्रा अरवाडे़ का झंडा भगवा/लाल/केसरिया रंग का व कलंगी अखाड़े का झंडा हरे रंग का होता है।
कुचामनी ख्याल
- प्रवर्तक- लच्छीराम नामक विख्यात लोक नाट्यकार।
- इन्होंने प्रचलित ख्याल परम्परा मे अपनी शैली का समावेश किया जिसमे लोकगीतों की प्रधानता, खुले मंच में प्रस्तुति करना, सामाजिक व्यंग पर आधारित कथावस्तु, सरल भाषा।
- यह ख्याल ओपेरा शैली में होता है।
- लच्छीराम एक अच्छे नर्तक व प्रसिद्ध लेखक थे इन्होने 10 ख्यालों की रचना की।
- इन दिनों इस ख्याल के प्रमुख कलाकार उगमराज को माना जाता है
- प्रमुख ख्याल- चांद नीलगिरि, गोगा चव्हाण, मीरा मंगल राव रिणमल
जयपुरी ख्याल
- इसमें महिला पात्रों का अभिनय महिलाओं द्वारा ही किया जाता है।
- इस ख्याल में मुक्त लचीली शैली नए प्रयोग की सम्भावनाएं होती है तथा जयपुर के गुणीजन कलाकार जयपुरी ख्याल में भाग लेते है।
- प्रमुख ख्याल- जोगी-जोगिन, कानीगूजरी, मियां -बीबी, पठान व रसीली तम्बोलन, भारमली।
- भारमली का रचयिता- हमीदुल्ला
- भारमली का अनुवाद भारत की सभी भाषाओं में किया जा चुका है।
शेखावटी / चिड़ावा ख्याल
- रचनाकार- नानूराम इस ख्याल के प्रमुख कलाकार रहे है। शिष्य- दूलिया राणा।
- सीकर, खण्डेला, चिडावा आदि क्षेत्रों में इनके प्रमुख अखाडे है,
- शेखावटी ख्याल में हीर रांझा, हरिश्चन्द्र, भर्तृहरि, जयदेव कलाली, ढोला मरवण मुख्य है इस ख्याल को चिडावा ख्याल भी कहते है।
- इस लोक नाट्य शैली की मुख्य विशेषताओं में अच्छा पद संचालन, उत्कृष्ट शैली, भाषा व गीत गायन तथा वाद्ययंत्रों की उचित संगत जिसमे सारंगी, शहनाई, हारमोनियम, बांसुरी, नक्कारा तथा ढोलक मुख्य होते है।
हेला ख्याल
- इस ख्याल की मुख्य विशेषता हेला देना या लम्बी टेर में आवाज देना है।
- इस ख्याल को प्रारम्भ करने से पूर्व बम वाद्ययंत्र का प्रयोग किया जाता है ताकि दूर दराज वाले लोगों को जानकारी हो जाए कि संगीत का दंगल प्रारम्भ हो गया
- इस ख्याल में नौबत वाद्य प्रमुख होता है
- क्षेत्र- (लालसोठ) दौसा, करौली, सवाई माधोपुर आदि क्षेत्रों में इस ख्याल का प्रचलन है।
अलीबख्शी ख्याल
- अलवर में अलीबख्शी द्वारा प्रचलित ख्याल जिसका प्रचलन पूर्वी राजस्थान में प्रसिद्ध है
- इस ख्याल में अहीरवाटी बोली का प्रयोग किया जाता है।
- अलीबख्श को राजस्थान का रसखान कहते है।
किशनगढी ख्याल
- यह ख्याल किशनगढ व अजमेर में अधिक प्रचलित है इसके प्रचलित कलाकार बंशीधर शर्मा है।
ढप्पाली ख्याल
- अलवर, भरतपुर, लक्ष्मनगढ क्षेत्र में इस ख्याल का प्रचलन है
- इस ख्याल में ढोल, नगाडा व शहनाई मुख्य वाद्य होते है।
बीकानेर ख्याल
- इस ख्याल को गोपीचंद एवं अमरसिंह राठौड ने प्रचलित किया।
भेंट के दंगल
- धौलपुर जिले के बाडी, बसेडी क्षेत्र में इस ख्याल का प्रचलन होता है। इस ख्याल में देवताओं से जुडे धार्मिक आख्यान होते है यह ख्याल पूर्वी क्षेत्र में अधिक प्रचलित है।
कन्हैया ख्याल
- यह ख्याल करौली, सवाई माधोपुर, धौलपुर, भरतपुर व दौसा क्षेत्रों में मूल रूप से मीणा जाति का है।
- इस ख्याल में प्रस्तुत की जाने वाली कहानी को कहन कहा जाता है
- इस ख्याल के मुख्य पात्र को मेडिया कहते है।
- ये ख्याल महाभारत व रामायण पर आधारित है।
रम्मत-
- संगीत नाट्य जो ऐतिहासिक पौराणिक तथ्यों के आधार पर काव्यमय रचनाओं द्वारा अभिनीत किया जाता है उसे रम्मत कहते है
- जैसलमेर व बीकानेर क्षेत्र के रम्मत अधिक प्रचलित है
- यह एक खेल नाट्य है जिसमे साहित्य, लावणी, गणपति वन्दना, रामदेवजी के भजनों का समावेश होता है जिसे नगाडा व ढोलक वाद्य के साथ प्रस्तुत करते है
- रम्मत शुरू होने से पूर्व खेलार (रम्मत के खिलाडी) मंच पर आकर बैठ जाते है ताकि दर्शक उनकी वेशभूषा को देख सके, इसके संवाद मंच पर बैठे विशेष गायकों द्वारा गाए जाते है राज्य में प्रमुख दो रम्मते है जो निम्न प्रकार है-
बीकानेर की रम्मत
- इस रम्मत को होली के अवसर पर लकडी के बडे तख्तों (पाटों) पर प्रदर्शन किया जाता है जिसके कारण इसे बीकानेर की पाटा रम्मत भी कहते है
- इस रम्मत में अमरसिंह राठौड री रम्मत, बारह गुवाह की हेडाऊमेरी की रम्मत, प्रहलाद, लैला-मजनू, हरिश्चन्द्र, पूरणमल आदि इस रम्मत के मुख्य विषय है,
- हेडाऊमेरी रम्मत का सूत्रपात जवाहरलाल पुरोहित ने किया।
- अमर सिंह राठौड़ की रम्मत- आचार्यो का चौक (बीकानेर)
- हेड़ाऊ मेरी की रम्मत- बारहगुवाड़ (बीकानेर)
जैसलमेर की रम्मत
- जैसलमेर की रम्मतों को रावलों की रम्मत कहा जाता है
- जैसलमेर के तेज कवि की स्वतंत्र बावनी रम्मत प्रसिद्ध है,
- इस रम्मत में भी सामाजिक, ऐतिहासिक व प्रेमाख्यान वाले विषय होते है
- इस रम्मत में नगाडा, ढोलक मुख्य वाद्य होते है
- तेजकवि की रचनाएं- मूमल, छेले तरबोलन, स्वतन्त्रता छावनी
- (स्वतन्त्रता छावनी गांधी जी को भेंट की थी)
फड-
- फड को पढ के नाम से जाना जाता है क्योकि इसमे गाथाओं को पढा जाता है अपभ्रंश में इसे फड कहा जाता है
- राजस्थान में प्रसिद्ध लोक देवी देवताओ की जीवनगाथा को फडों पर चित्रित कर उसका बखान किया जाता है
- फड भोपों द्वारा खेली जाती है ये भोपें जल्दी-जल्दी एक स्थान से दूसरे स्थान पर चले जाते है
- फड को दर्शकों के सामने तान दिया जाता है
- भोंपा गायक की पत्नी या सहयोगिनी लालटेन लेकर फड के पास नाचती व गाती हुई पहुंचती है,
- भोंपा अपने प्रिय वाद्य रावण हत्था को बजाता हुआ स्वयं भी गाता व नाचता है
राजस्थान में दो लोकप्रिय लोक देवताओं की फड अधिक प्रसिद्ध है
देवनारायणजी की फड
- लोक देवता देवनारायणजी गूजर जाति के आराध्य देव है गूजर जाति के भोंपों द्वारा इनकी फड का वाचन किया जाता है यह फड राजस्थान की सबसे प्राचीन व सबसे बडी फड होती है लेकिन वाचन करने में समय कम लगता है देवनारायणजी की फड जन्तर नामक वाद्ययंत्र के साथ वांची जाती है।
पाबूजी की फड
- राजस्थान में ऊंटो के लोक देवता के नाम से प्रसिद्ध पाबूजी की फड 30 फुट लम्बी व 5 फुट चौडी कपडे पर जीवन चरित्र की गाथाओं को चित्रित किया जाता है इस फड को एक बांस में लपेटकर रखा जाता है और यह भोंपा जाति के लोग जीविका साधन के रूप में इसे अपनाते है इस फड में रावण हत्था वाद्य यंत्र का प्रयोग होता है। यह फड राज्य में सबसे प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय फड मानी जाती है पाबूजी की घोडी केसर कालमी को काले रंग से चित्रित किया जाता है
विशेष-
- वर्तमान में राजस्थान में फड का प्रसिद्ध घराना शाहपुरा (भीलवाडा) है यहां के प्रदीप जोशी एक प्रसिद्ध फड चितेरे है जो प्रसिद्ध फड चितेरे श्री लाल जोशी के शिष्य है एवं श्रीमती पार्वती जोशी देश की प्रथम फड चितेरी महिला है, फड चित्रण में लाल एवं हरे रंग का विशेष प्रयोग किया जाता है
- राज्य में फड शैली का जन्म 700 वर्ष पूर्व मेवाड रियासत में एक लोक कला के रूप में हुआ जिसका प्रचलन आज भी चारण, भाट व भोपों द्वारा किया जा रहा है
- राज्य में लोक देवता रामदेवजी की फड को कामड जाति के भोपों द्वारा रावण हत्था वाद्ययंत्र के साथ वाचन किया जाता है इस फड के प्रमुख चितेरे चौथमल मांगी है इस फड का प्रचलन चमार, भंगी आदि में अधिक है
- राज्य में लोक देवता भैंसापुर की फड जिसका वाचन नही होता है तथा चोरी करने से पहले इस फड को चित्रित किया जाता है
- राज्य की रामदला-कृष्णदला की फड भाट भोपों द्वारा हाडौती अंचल में किया जाता है इनका फड का वाचन रात के स्थान पर दिन में होता है यह फड बिना किसी वाद्ययंत्र के वांची जाती है
नौटंकी-
- यह मूलतः उत्तरप्रदेश का लोकनाट्य है।
- भरतपुर तथा धौलपुर में नत्थाराम की मण्डली द्वारा नौटंकी का खेल दिखाया जाता है इसके अलावा नौटंकी के अन्य अखाडे धौलपुर, करौली, अलवर, गंगापुर, सिटी, भरतपुर तथा सवाई माधोपुर में भी है ये अखाडे अपनी-अपनी निजी कम्पनियों के नाम से जाने जाते है
- राजस्थान में नौटंकी का प्रचलन डीग निवासी श्री भूरेलाल ने किया जो पूर्व में हाथरस में नौटंकी करते थे,
- गिर्राज प्रसाद कामां (भरतपुर) नौटंकी के प्रसिद्ध कलाकार है
- नौटंकी में नगाडा, ढोलक, सारंगी, चिकारा, ढफली आदि 9 प्रकार के वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया जाता है
- नौटंकी के प्रसिद्ध खेलों में रूप बसन्त, नकाब पोश, राजा हरिश्चन्द्र, लैला मजनू, नल दमयंती तथा राजा भर्तृहरि मुख्य है, इसका प्रचलन ग्रामीण परिवेश में अधिक है
गवरी-
- मेवाड में भीलों का यह सामुदायिक गीत नाट्य है जो चित्ताकर्षक एवं पारस्परिक रीति-रिवाजों से युक्त होता है, गवरी राजस्थान का सबसे प्राचीन लोक नाट्य है जिसे लोक नाट्यों का मेरू नाट्य कहा जाता है गवरी का संचालन एवं नियंत्रण संगीत द्वारा होता है इसमे स्त्रियों की भूमिका भी पुरूषों द्वारा निभाई जाती है, गवरी के दिनों में स्त्री गमन, मांस मदिरा एवं हरी सब्जी के सेवन पर गवरी पात्रों के लिए पूर्णतया प्रतिबन्धित होता है
- राजस्थान के उदयपुर, डूंगरपुर व बांसवाडा क्षेत्रों में भीलों का प्रसिद्ध लोक नाट्य है इसे राई लोक नाट्य भी कहा जाता है
- जुलाई अगस्त के महीनों में बूडिया देव (शिव) की पूजा के अवसर पर गवरी लोकनाटय का प्रस्तुतीकरण किया जाता है भील अपना घर छोडकर इस समारोह से बंधकर गवरी में भाग लेते है जो 40 दिनों तक सुबह से शाम तक प्रतिदिन चलता रहता है इसमे भाग लेने वाले नर्तक, अभिनेता, गायक सभी उत्साह व उल्लास से भाग लेते है गवरी लोक नाट्य का मुख्य आधार भगवान शिव व भष्मासुर की कथा है
- गवरी के मुख्य प्रसंग बादशाह की सवारी, देवी अम्बड, भिन्यावड, बंजारा, खाडलिया भूत तथा शेर सूअर की लडाई प्रमुख है
- गवरी नाट्य में मुख्य रूप से 5 पात्र होते है जिनमे 2 राईया (पार्वती), गवरी लोकनाट्य का सूत्राधार कुटकुडिया, पाट व बुढिया द्वारा होता है तथा गवरी के अन्य पात्र खेल्ये कहलाते है
स्वांग-
- भांड या भानमति जाति द्वारा इस लोक नाट्य को प्रस्तुत किया जाता है।
- यह भी लोक नाट्य का एक रूप होता है जिसमे मुख्य चरित्र द्वारा किसी अन्य चरित्र की नकल की जाती है इसे बहरूपिया भी कहा जाता है
- स्वांग में किसी विशेष ऐतिहासिक, पौराणिक, लोकप्रसिद्ध या समाज में प्रसिद्ध चरित्र देवी देवता की नकल कर भेषभूषा पहनकर अभिनय किया जाता है
- वर्तमान में शाहपुरा (भीलवाडा) के जानकी लाल भांड ने इस कला को विदेशों में पहुंचा है
लीलाएं-
- लीलाओं की कथा को धर्म पुराणों व पुराख्यानों से लिया जाता है
- इनमे धर्म व लोकाचार्य की प्रधानता होती है
राज्य में निम्न लीलाएं इस प्रकार है-
रासलीला-
- यह लीला भगवान श्रीकृष्ण के जीवन पर आधारित होती है
- शिवलाल कुमावत ने राज्य में रासलीला को विशेष स्वरूप प्रदान किया है
- इसका मुख्य केन्द्र फुलेरा (जयपुर) में है
- रासलीला की उत्पत्ति वल्लभ सम्प्रदाय से मानी जाती है जो भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति पर जोर देते थे
- इसके संस्थापक वल्लभाचार्य थे वल्लभ सम्प्रदाय का प्रधान केन्द्र नाथद्वारा (राजसमन्द) थे।
रामलीला-
- रामलीला में भगवान श्रीराम के जीवन चरित्र का वर्णन किया जाता है
- गोस्वामी तुलसीदास ने विधिवत् रूप से इसे प्रारम्भ किया
- राज्य के अनेक स्थानों पर हमे यह लीला देखने को मिलती है
विशेष-
- बिसाऊ (झुंझुनू) की रामलीला पूरे राज्य में अपने मूक अभिनय के लिए प्रसिद्ध है इसे गूंगी (मूक) रामलीला कहते है
- अटरू (बारां) कस्बे की रामलीला में धनुष राम द्वारा ना तोडा जाकर जनता द्वारा तोडा जाता है इसे अटरू की धनुष लीला कहते है
- पाटूँदा (सीकर) की रामलीला ढाई कडी पर आधारित होने के कारण विशिष्ट मानी जाती है
भवाई
- यह लोक नाट्य गुजरात राज्य का मुख्य लोक नाट्य है
- राज्य में गुजरात राज्य के सीमावर्ती क्षेत्रों में नृत्य नाटिका के रूप में यह अधिक लोकप्रिय है
- इसे व्यवसायिक श्रेणी का लोक नाट्य माना जाता है
- इस लोक नाट्य में संगीत का पक्ष अधिक महत्वपूर्ण नही होता लेकिन नृत्य, अभिनय एवं कलाकारी का पक्ष अधिक मजबूत होता है
- भवाई पर आधारित एक नाटक जस्मा ओढन है जिसे शान्ता गांधी द्वारा लिखा गया इसका प्रचलन लन्दन व जर्मनी मे होता है
- भवाई लोक नाट्य मे भोंपा व भोंपी द्वारा सगाजी एवं सगीजी के रूप मे नाट्य को सम्पन्न करते है इसका संचालन सूत्रधार करता है
- भवाई लोक नाट्य मे आम आदमी के संघर्ष की कथा होती है
- यह उच्च व निम्न वर्ग के वर्ग संघर्ष को बताता है
- इसमे सारंगी, नफरी, नगाडा एवं मंजीरा मुख्य वाद्य होते है
- भवाई लोक नाट्य की उत्पत्ति केकडी (अजमेर) के नागोजी/बिग्गाजी जाट द्वारा मानी जाती है।
तमाशा
- महाराष्ट्र की प्रमुख लोक नाट्य शैली तमाशा का प्रचलन जयपुर राज्य मे हुआ,
- इस गौरवशाली लोक नाट्य की परम्परा का प्रारम्भ जयपुर मे महाराजा प्रतापसिंह के शासनकाल मे हुआ
- इन्हीं के शासनकाल मे पण्डित बंशीधर भट्ट (महाराष्ट्र के) ने गुणीजन खाने मे आश्रय लेकर इस लोक नाट्य को प्रोत्साहित किया
- तमाशा लोक नाट्य में जयपुरी ख्याल एवं धु्रपद गायिकी का समावेश किया जाता है।
- पण्डित बंशीधर भट्ट इसके मुखिया थे इन्हें जयपुर राजघराने ने संरक्षण दिया तथा इन्होने परम्परागत विधि से तमाशा का लोकमंचन किया इनके सहयोगी कलाकार गोपीकृष्ण भट्ट एवं वासुदेव भट्ट थे
- तमाशा लोक नाट्य मे काव्यात्मक संवाद खुले रंगमंच पर प्रस्तुत होते है जिसे अखाडा कहा जाता है
- इस लोक नाट्य मे स्त्री पात्रों की भूमिका स्त्रियों द्वारा ही अभिनीत की जाती है
- इसमें राग रागनियों की प्रधानता तथा संगीत, नृत्य, गायन तीनों का संगम होता है।
अन्य प्रचलित लोक नाट्य
चारबैंत
- टोंक क्षेत्र मे खेली जाने वाली संगीत दंगल रूपी यह एक लोक नाट्य विधा है
- जिसमे गायक पात्र ढफ बजाता हुआ घुटनों के बल खडे होकर अपनी बात गाकर कहता है
- यह लोक नाट्य मूलतः (अफगानिस्तान) पठानों की विद्या है,
- टोंक में इस कला का प्रारम्भ टोंक के नवाब फैजुल्ला खाँ के समय खलीफा अब्दुल करीम खाँ निहंग ने किया
- नवाब मीर खाँ ने चारबैंत कलाकार द्वारा बुन्देलखण्ड से टोंक तक इस लोक नाट्य का प्रचलन करवाया।
- इस लोक नाट्य का गायन मंचन युद्ध के समय सिपाहियों का उत्साह बढाने के लिए किया जाता था
- इसकी चार श्रेणियाँ है भक्ति, श्रृंगार, रकीबखानी और गम्माज।
Note- राजस्थान मे चारबैंत शैली मे बने बगीचे हमे डींग के जल महलों मे देखने को मिलते है।
कादरा भूतरा की सवारी-
- जयपुर जिले के गीजगढ मे भगवान नृसिंह चतुर्दशी के अवसर पर कादरा भूत खेल के नाम से मन्दिर से भगवान नृसिंह, भक्त प्रहलाद, नारद मुनि, गुरू शुक्राचार्य, भगवान शिव और कादरा भूतरा के स्वांग निकाले जाते है
- जिसका प्रचलन सवारी के समय एक लोक नाट्य के रूप मे होता है
नाहरों का स्वांग-
- यह भीलवाडा जिले के माण्डल गांव मे सींग वाले शेरों के नृत्य के रूप मे होली पर गांव के दो तीन व्यक्ति पूरे शरीर पर रुई लपेटकर व सींग लगाकर शेर बनते है तथा ढोल वाद्य की थाप पर लोक नाट्य को प्रस्तुत करते है
- माना जाता है कि मुगल सम्राट् शाहजहाँ जब उदयपुर से लौटकर भीलवाडा मे रुके, उस समय शाहजहाँ के मनोरंजन के लिए इस परम्परा की नींव डाली गई, तब से यह परम्परा लगातार जारी है
न्हाण उत्सव-
- कोटा के सांगोद नामक कस्बे मे इस खेल का प्रचलन होता है
- इसमे ना रंग होता है ना पानी और ना ही गुलाल, लेकिन यह खेल होली के माहौल मे विचित्र भेषभूषा से सज्जित अखाडे के रूप मे प्रचलित होता है
हरवड गायन-
- राज्य के बागड (डूँगरपुर, बाँसवाडा) क्षेत्र मे मकर संक्रांति पर श्रवण कुमार की गाथा गाए जाने की परम्परा है
- इस गाथा को गाने वाले को हरवड कहा जाता है
कठपुतली लोक नाट्य-
- राजस्थान मे कठपुतली लोक नाट्य की भी परम्परा है,
- इसका प्रचलन मेवाड क्षेत्र मे अधिक होता है
- इसमे कठपुतली नचाने वाला सूत्रधार नट अपने मुँह मे एक विशेष प्रकार की सीटी रखता है जिससे कठपुतलियों की प्रस्तुति होती है
- प्रसिद्ध कठपुतली लोक-नाट्य सिंहासन बत्तीसी, पृथ्वीराज संयोगिता, अमर सिंह राठौड का खेल मुख्य है
भोंपा
- भोंपे पेशेवर पुजारी होते है
- इनका मुख्य पेशा किसी मन्दिर मे देवता के आगे गाना नाचना होता है या फिर अपने संरक्षकों के दरवाजे पर जाकर अपना पेशेवर गाना व नृत्य दिखाते है
- ये भोंपे अपनी-अपनी कला मे माहिर होते है तथा देवता के प्रति उनमे अगाध श्रद्धा होती है एवं वे अपने देवी देवता की दैवीय व चमत्कारी शक्ति मे विश्वास रखते है
- राज्य मे कुछ लोक देवताओं के भोंपे अधिक प्रसिद्ध है जैसे पाबूजी के भोंपे, रामदेवजी के भोंपे, गोगाजी के भोंपे, भेरूँजी के भोंपे आदि।
भांड-
- राजस्थान के राजपूत राजाओं के शासनकाल मे भांड मण्डलियाँ अधिक लोकप्रिय थीं ये भांड अपने राजा व सामन्तों के संरक्षित होते थे,
- भांड समय-समय पर राजा महाराजाओं के वंशों का क्रमबद्ध चिट्ठा अपने आप सुरक्षित रखते थे जिसका बखान ये भांड अपने नृत्यों व अनेक करतबों के द्वारा शादी, विवाह व अन्य अवसरों पर प्रस्तुत कर धन प्राप्त करते थे।