राजस्थान एक भौगोलिक एवं सांस्कृतिक विविधतायुक्त प्रदेश है इसी विविधता ने इस प्रदेश के लोक नृत्यों को भी विविधता प्रदान की है और अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग नृत्य विकसित हुए। इन लोक नृत्यों के साथ-साथ शास्त्रीय नृत्य परम्परा की दृष्टि से भी यह देश उन्नत रहा है।
कत्थक नृत्य-
- वर्तमान समय में शास्त्रीय नृत्य परम्परा के अन्तर्गत कत्थक राजस्थान व उत्तर भारत की नृत्य शैली है। कत्थक नृत्य का विकास उत्तर भारत में हुआ था लखनऊ घराने को कत्थक का आदिम घराना माना जाता है। बिरजु महाराज कत्थक नृत्य के अन्तर्राष्ट्रीय कलाकार है इनका जन्म 4 फरवरी 1938 ई. को लखनऊ में हुआ तथा इस नृत्य के प्रवर्तक भानू जी महाराज थे।
- कत्थक नृत्य में चार प्रमुख घराने है-
- लखनऊ घराना- अवध के नवाब वाजिद आली शाह के दरबार में कत्थक नृत्य का जन्म हुआ। ठुमरी कला इस घराने की विशेष पहचान रही है।
- जयपुर घराना- यहां मुगलों के द्वारा कछवाह राजपुतों के दरबार में कत्थक नृत्य का जन्म हुआ। थाट, क्लिण्टता, भ्रमरी तथा विभिन्न नृत्य शैलियों का जन्म जयपुर घराने में हुआ। इस घराने में पखावज वाद्य यंत्र का सर्वाधिक उपयोग हुआ है।
- बनारस घराना- जानकी प्रसाद ने इस घराने की प्रतिष्ठित किया था। यहां नटवरी का अनन्य उपयोग होता है।
- रायगढ़ घराना- छत्तीसगढ़ के महाराज चक्रधार सिंह द्वारा प्रतिष्ठित किया गया था। पण्डित कल्याणदास व पण्डित बरमानलक इस घराने के प्रसिद्ध नर्तक है।
- कत्थक नृत्य की विशेषता-
- गणेश वन्दना- नृत्य प्रारम्भ होने से पहले किसी भी देवता की स्तुति की जाती है।
- आमद- फारसी भाषा के इस शब्द का अर्थ आगमन होता है अर्थात नृतक टुकडों में नाचता हुआ मंच पर प्रवेश करता है।
- थाट- जयपुर घराने में थाट का अपना एक विशेष अंदाज है इसमें नर्तक पैरों को बिना उठाये थिरकते हुए मंच के एक कोने से दूसरे कोने तक भौंहे, गर्दन एवं कलाई के विभिन्न रूपों को उभारते हुए मंच पर नृत्य करता है।
- क्लिष्टता- यह जयपुर घराने का विशेष गुण है, कहा जाता है कि जितने बल उनकी पगड़ी में है। उतने ही बल उनकी बन्दिशों में है।
- भ्रमरी- भ्रमरी में एक ही जगह पर खडे़ रहकर दो या तीन चक्कर लगाना यह जयपुर घराने का विशेष महत्व है।
- कत्थक नृत्य में चार प्रमुख घराने है-
भारत के शास्त्रीय नृत्य-
- कत्थक – उत्तर भारत
- कथकली, मोहनी अट्टम – केरल
- कुच्चीपुड़ी – आन्ध्रप्रदेश
- भरतनाट्यम – तमिलनाडु
- यक्षगान – कर्नाटक
- मणिपुरी – मणिपुर
- ओड़िसी – उड़ीसा
राजस्थान में प्रचलित प्रमुख लोक नृत्यों को निम्न भागों में वर्गीकृत किया गया है।
क्षेत्रीय नृत्य
गैर नृत्य – मेवाड़ व बाड़मेर
गीदड़, चंग, कच्ची घोड़ी (शेखावटी) (कच्ची घोड़ी नृत्य गुलाब की पंखुड़ियों के खुलने की आभास कराता है)
ड़ांड़िया | मारवाड़ |
ड़ांग नृत्य | नाथद्वारा |
चरी नृत्य | किशनगढ़ |
ढ़ोल नृत्य | जालौर |
अग्नि नृत्य | बीकानेर |
बिन्दोरी नृत्य | झालावाड़ |
बम नृत्य | भरतपुर |
शिकारी नृत्य | कोटा, बांरा |
चरकुला नृत्य | भरतपुर |
घुड़ला नृत्य | जोधपुर |
हिंड़ौला नृत्य | जैसलमेर |
चकरी, झूमर नृत्य | कोटा (हाड़ौती) |
पेजण नृत्य | बांगड़ क्षेत्र (दिपावली के अवसर) |
नाहर नृत्य | मांड़ल भीलवाड़ा (होली के बाद चैत्र कृष्ण त्रयोदशी को) |
सूकर नृत्य | मेवाड़ |
जातीय लोक नृत्य
- भीलों के नृत्य – गवरी, राई, हाथीमना, युद्ध नेजा, गैर, घुमरा, रमणी, द्धिचक्री आदि
- गरासियों के नृत्य – वालर, लूर, कूद, मांदल, गौर, जवारा गर्वा मोरिया आदि
- कथोड़ी जन जाति नृत्य – मावलिया एवं होली नृत्य
- मेव जाति के नृत्य – रणबाजा एवं रतबई नृत्य
- सहरिया जाति के नृत्य – शिकारी बिछवा नृत्य लंहगी, फाग नृत्य
- बणजारा जाति का नृत्य – मछली नृत्य
- कंजर जाति का नृत्य – चकरी, धाकड़ नृत्य
- कालबेरिया नृत्य – शंकरिया, पणिहारी, बगड़िया, इंड़ोणी नृत्य
- नट जाति नृत्य – कठपुतली, बादलिया, सुगनी नृत्य
- कामड़जाति नृत्य – तेरहताली नृत्य
व्यवसायिक लोक नृत्य
- तेरहताली
- भवाई नृत्य
- शंकरिया
- बगड़िया
- चकरी
- धाकड़
- कठपुतली
- कच्चीघोड़ी
- रणबाजा
- रतबई नृत्य
सामाजिक व धार्मिक नृत्य
- गरबा नृत्य
- घूमर नृत्य
- वीर तेजाजी नृत्य
- घुड़ला नृत्य
- गोगा भक्तों का नृत्य
भील जातीय लोक नृत्य-
- गैर नृत्य- यह मेवाड़ व बाड़मेर का प्रसिद्ध नृत्य है जो होली के दूसरे दिन से प्रारम्भ होकर 15 दिन तक केवल पुरूषों द्वारा किया जाता है। पुरूष लकड़़ी की छड़ियां, खाण्ड़ा लेकर खुले मैदान में गोल घेरा बनाकर नृत्य करते है। जिसे करने वाले गेरिये कहलाते है। जो मेवाड़ में भील जनजाति के द्वारा किया जाता है।
इस नृत्य में सभी वर्गो के पुरुष भाग लेते है जैसे- पुरोहित, ठाकुर, माली, चौधरी, भील-मीणा।
- गवरी नृत्य- यह मेवाड़ क्षेत्र में भीलों द्वारा किया जाने वाला प्रसिद्ध नृत्य है। यह एक नाटक के रूप में दिन में प्रस्तुत किया जाता है जो सावन-भादो माह में रक्षाबन्धन में दूसरे दिन से शुरू होकर 40 दिन (सवा माह) तक केवल पुरूषों द्वारा मांदल व थाली की ताल पर किया जाता है। यह नाट्य दैत्य संस्कृति पर देव संस्कृति की विजय का प्रतीक है। इसमें चार प्रकार के पात्र होते है- देव, दानव, मानव एवं पशु।
- मुख्य पात्र- गवरी में दो मुख्य पात्र होते है राई बुड़िया और राई माता। राई बुड़िया को शिव तथा राई माता को पार्वती माना जाता है इसलिए इसे राई नृत्य भी कहा जाता है।
- गवरी का मूल कथानक भगवान शिव और भस्मासुर से सम्बन्धित है इसका नायक राई बुड़िया होता है। जो शिव तथा भस्मासुर का प्रतीक है। नायिका राई माता होती है। इस नृत्य में शिव को पूरिया कहा जाता है तथा नृत्य में भाग लेने वाले कलाकारों का खेलार कहते है। जो उदयपुर व राजसमंद में किया जाता है।
- गवरी में सभी कलाकार पुरुष होते है महिला पात्रों की भूमिका भी पुरुष ही निभाते है। प्रत्येक गवरी में दो राई माता (शिव की दो पत्नि) होती है। दोनों राईयाँ लाल घाघरा, चूनरी, चोली पहनी होती है इस नृत्य के विशिष्ट पात्रों में झामटिया पटकथा की प्रस्तुति देता है। तथा खड़कियाँ हास्य व्यग्ंय के साथ उसको दोहराता रहता है।
- गवरी नृत्य की अवधि में सवा माह तक राई बुड़िया और भोपा नंगे पांव रहते है, जमीन पर सोते है, स्नान नहीं करते है, हरी सब्जी व मांस आदि का सेवन नहीं करते है।
- नेजा नृत्य- यह भील स्त्री व पुरूषों द्वारा किया जाने वाला एक खेल नृत्य है। जो होली के तीसरे दिन किया जाता है। इस नृत्य में जमीन पर खम्भा गाड़कर उसके ऊपरी सिरे पर नारियल बांध दिया जाता है। पुरूष खम्भें पर चढ़कर नारियल को पकड़ने का प्रयास करते है और महिलाएं छड़ियां व कोड़ों से मारकर रोकने का प्रयास करती है। नेजा नृत्य मुख्य रूप से डूंगरपुर, उदयपुर, सिरोही, जिलों में अधिक प्रचलित है।
- हाथीमना नृत्य- विवाह के अवसर पर भीलों द्वारा किया जाने वाला नृत्य है, जो घुटने टेककर तलवार के बल पर किया जाता है
- रमणी नृत्य- विवाह के अवसर पर भीलों द्वारा किया जाता है। इस नृत्य में महिलाएं पंक्ति बनाकर गीत गाती हुई आगे-पीछे बढ़ती रहती है।
- युद्ध नृत्य- यह भीलों के द्वारा किया जाने वाला नृत्य हैं जिसमें भील पुरूष दो दल बनाकर हाथ में तीर, कमान, भाले, बरछी तथा तलवार आदि के साथ किया जाने वाला तालबद्ध नृत्य है।
- द्धिचक्री नृत्य- यह भील पुरूष व महिलाओं के द्वारा विवाह के अवसर पर दो चक्र बनाकर किया जाने वाला नृत्य है। जिसमें बाहरी चक्र में पुरूष बांये से दाहिनी ओर तथा अन्दर के चक्र में महिलाएं दांये से बांयी ओर नृत्य करती हुई चलती है।
- लाठी नृत्य- लाठी नृत्य केवल भील पुरूषों के द्वारा किया जाता है। भील पुरूष हाथों में लाठी लेकर विभिन्न कलाओं का प्रदर्शन करते हुए नृत्य करते है।
गरासिया जनजाति के नृत्य (सिरोही)-
- वालर नृत्य- यह सिरोही क्षेत्र में गरासिया जनजाति के पुरूषों व महिलाओं द्वारा मुख्य रूप से विवाह के अवसर पर किया जाता है। जिसमें महिला व पुरूष दो अर्द्धवृतों में खडे़ होकर धीमी गति से नृत्य करते है। बाहरी अर्द्धवृत में पुरूष तथा अन्दर वाले वृत में महिला रहती है इस नृत्य का प्रारम्भ पुरूष अपने हाथ में तलवार या छाता लेकर करते है। लेकिन इस नृत्य में किसी वाद्य यंत्र का प्रयोग नहीं होता। यह नृत्य विवाह के अलावा होली व गणगौर पर भी किया जाता है।
- लूर नृत्य- यह मुख्यतः गरासिया जनजाति की महिलाओं द्वारा विवाह तथा मेले के अवसर पर किया जाता है।
- मोरिया- गरासिया जनजाति में केवल पुरूषों द्वारा विवाह के अवसर पर किया जाता है।
- मांदल नृत्य- मांदल वाद्य यंत्र के साथ गरासिया जनजाति की महिलाओं द्वारा किया जाने वाला नृत्य है।
- रायण नृत्य- रायण नृत्य गरासिया जनजाति के पुरूषों द्वारा किया जाता है।
- गौर नृत्य- गरायिसा महिलाओं व पुरूषों द्वारा गणगौर के अवसर पर किया जाता है।
- जवारा नृत्य- गरासिया महिलाओं व पुरूषों द्वारा होली के अवसर पर किया जाता है।
- कूद नृत्य- यह गरासिया जनजाति के पुरूष व महिलाओं द्वारा बिना वाद्य यंत्र पंक्तिबद्ध तरीके के किया जाता है।
- गर्वा- गर्वा नृत्य गरासिया जनजाति की महिलाओं द्वारा किया जाता है।
कथौड़ी जनजाति के नृत्य (उदयपुर)-
- मावलिया नृत्य- यह कथौड़ी जनजाति के पुरूषों द्वारा प्रतिवर्ष नवरात्रा में नौ दिन तक किया जाता है। इस नृत्य में ढोलक व बांसुरी प्रमुख वाद्य यंत्र होते है।
- होली नृत्य- यह होली के अवसर पर महिलाओं द्वारा किया जाता है।
मेव जनजाति के नृत्य (अलवर)-
- रणबाजा नृत्य- यह मेवात क्षेत्र का प्रसिद्ध नृत्य है जो पुरूष व महिलाएं दोनों के द्वारा किया जाना वाला युग्म नृत्य है।
- रतबई नृत्य- यह नृत्य मेव जाति की महिलाएं द्वारा संतलालदासजी की स्मृति व विभिन्न मांगालिक अवसरों पर किया जाता है।
सहरिया जनजाति नृत्य (बांरा)-
- शिकारी नृत्य- यह सहरिया जनजाति के पुरूषों द्वारा किया जाने वाला हाड़ौती प्रदेश का प्रसिद्ध नृत्य है।
- अन्य नृत्य- झेला, फाग, लहंगी, बिछवा ये सभी सहरिया जनजाति के द्वारा किये जाने वाले नृत्य है।
बंजारा जनजाति नृत्य (बाड़मेर)-
- मछली नृत्य- यह बाड़मेर में बंजारा जनजाति की महिलाओं द्वारा किया जाता है। जो एक नाटक नृत्य है। इस नृत्य की शुरूआत बडे़ हर्षोल्लास से की जाती है। लेकिन अन्त बडे़ दुःख के साथ होता है। यह नृत्य पूर्णिमा की चांदनी रात में किया जाता है।
- फ्लेमेंको नृत्य- फ्लेमेंको नृत्य की शिरकत कर रहे क्वीन हरीश (स्पेन) जो कई वर्षो से राजस्थानी बंजारा लोक नृत्य का प्रदर्शन कर रहे हैं। ये जैसलमेर के एक जिप्सी परिवार (बंजारा) से वास्ता रखते है। जो प्रतिवर्ष जोधपुर में फ्लेमेंको जिप्सी महोत्सव मनाते है। इस नृत्य में कास्तानियस (स्पेन) वाद्य यंत्र का प्रयोग किया जाता है। जो भारतीय वाद्य यंत्र खड़ताल से मिलता-जुलता है।
बंजारा जाति की बस्ती को तांड़ा कहा जाता है।
कालबेलिया जनजाति नृत्य –
- कालबेलिया नृत्य- कालबेरिया जाति के सपेरों द्वारा किया जाता है। 22 नवम्बर 2010 को केन्या की राजधानी नैरोबी में बैठक हुई जिसमें कालबेरिया नृत्य को यूनेस्कों सूचीं में शामिल गया। इस नृत्य को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पहचान गुलाबोबाई ने दिलाई।
- गुलाबो बाई- गुलाबों का जन्म 1971 ई. में अजमेर के कोटड़ा गांव में धनतेरस के दिन हुआ था। अपने परिवार के साथ 10 वर्ष की उम्र (1981 ई.) में जयपुर के शास्त्री नगर की सुभाष कॉलोनी में आकर रहने लगी थी। 1986 ई. में इनका विवाह कालबेरिया समाज के सोहन लाल से हुआ था। 14-15 वर्ष की उम्र में इन्हें भारत महोत्सव में जाने का मौका मिला। उसके बाद तो इन्होने अपने नृत्य में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर एक मिसाल कायम की।
- शंकरिया नृत्य- यह कालबेलिया जाति का युग्म नृत्य है जो प्रेम कथा पर आधारित है। जिसमे पुरूष व महिलाएं दोनों भाग लेते है।
- बगड़ियां नृत्य- यह कालबेलिया स्त्रियों के द्वारा भीख मांगते समय किया जाता है। जिसमें मुख्य वाद्य यंत्र चंग होता है।
- इण्ड़ोणी नृत्य- इण्ड़ोणी नृत्य (मटके व सिर के बीच में रखा जाने वाला कपडे़ का गट्टा) कालबेरिया जाति युग्म नृत्य है। जो वृत्ताकार रूप में किया जाता है।
- पणिहारी नृत्य- कालबेलियों का युगल नृत्य है जो पणिहारी लोक गीत गाते हुए किया जाता है।
नटजाति नृत्य (उदयपुर)-
- कठपुतली नृत्य- कठपुतली का इतिहास बहुत पुराना है ईसा पूर्व चौथीं शताब्दी में पाणिनी की अष्टादायीं के नटसूत्र में पुतला नाटक का उल्लेख मिलता है। राजस्थान की कठपुतली काफी प्रसिद्ध है। यहां लकडी व कपडे़ से बनी कठपुतली को धागे से बांधकर नचाई जाती है। कठपुतली के शरीर के भाग इस प्रकार जोड़े जाते है कि उनसे बंधी डोर खींचने पर वे अलग-अलग प्रदर्शन कर सकें। यह नटजाति के द्वारा ही किया जाता है। जो जातिय एवं व्यवसायिक दोनों श्रेणियों में शामिल है।
- बालदिया नृत्य- यह भाटजनजाति का नृत्य है।
- रसिया नृत्य- मीणा जनजाति का नृत्य है।
व्यावसायिक लोक नृत्य-
- तेरहताली नृत्य- यह नृत्य जैसलमेर जिले में बाबा रामदेवजी की आराधना में कामड़ जाति की महिलाओं द्वारा किया जाता है। जो जातिय व व्यवसायिक दोनों श्रेणी में आता है। इस नृत्य का उद्गम पादरला गांव पाली में हुआ था। जो बैठकर किया जाता है। इस नृत्य में पुरूष मंजीरा, तानपुरा तथा चौतारा वाद्य यंत्र के साथ गीत गाते है। और महिलाएं 13 मंजीरों को हाथ-पांव पर बांधकर नृत्य करती है। 9 मंजीरे दांये पैर पर 2 दोनों हाथों की कुहनियों पर तथा 1-1 मंजीरा दोनों हाथों में लेकर विविध प्रकार की ध्वनियां उत्पन्न करती है। इस नृत्य की अन्तर्राष्ट्रीय नृत्यांगना मांगी बाई है।
- मांगीबाई- मांगीबाई का जन्म चितौड़गढ़ जिले के बनिला गांव में हुआ। 10 वर्ष की आयु में इनका विवाह (पाली जिले के तेरहताली नृत्य के लिए प्रसिद्ध पादरला गांव में) भैंरूदास के साथ कर दिया गया। यहां उन्होंने अपने जेठ गोरमदास से तेरहताली नृत्य की विभिन्न बारीकियां सीखी। यह नृत्य उनके परिवार तथा जाति का पुश्तैनी धंधा है। इसलिए मांगीबाई ने भी इस नृत्य को धंधे के रूप में अपनाया। इन्होंने सन् 1954 ई. में पंडित जवाहर लाल नेहरू की उपस्थिति में चितौड़गढ़ में आयोजित गड़िया लुहार सम्मेलन में हजारों दर्शकों के समक्ष यह नृत्य कर सभी को अपनी नृत्यांगना से मोहित कर दिया। इस अविस्मरणीय प्रथम प्रस्तुति के बाद देश में कई शहरों के अलावा अमेरिका, जर्मनी, इंग्लैण्ड, स्पेन, इटली, रूस, कनाडा आदि देशों में प्रस्तुति दी। इसके अतिरिक्त इन्हें राजस्थान सरकार द्वारा मीरा पुरस्कार, राजस्थानी लोक नृत्य तेरहताली पुरस्कार, पर्यटन विभाग भारत सरकार द्वारा सम्मान दिया गया।
भवाई नृत्य-
भवाई उदयपुर संभाग का प्रसिद्ध नृत्य है। जिसके प्रवर्तक बाधाजी थे। यह पुरूष व महिला दोनों के द्वारा किया जाता है । इस व्यावसायिक (पेशेवर) नृत्य में अनुठी नृत्य अदायगी तथा शारीरिक चमत्कारिता होती है।
इस नृत्य में विविध रंगों की पगड़ियों को हवा में फैलाकर अपनी अपनी अंगुलियों से नृत्य करते हुए कमल के फूल जैसी संरचना बनाना, सिर पर 7-8 मटके रखकर नृत्य करना, गिलास पर नाचना, थाली के किनारों पर नाचना, जमीन पर रखे रुमाल को मुँह से उठाना, तेज तलवार की धार पर नाचना, काँच के टुकड़ों पर नाचना आदि प्रमुख चमत्कारी नृत्य है।
भवाई नृत्य के प्रमुख कलाकार- सांगीलाल, रुपसिंह शेखावत, तारा शर्मा, अस्मिता शर्मा (जयपुर -लिटल वन्डर)।
नृत्य के प्रकार- यह शंकरिया, सुरदास, बोरी, ढ़ोकरी, बिकाजी एवं ढ़ोला मारू नृत्य के रूप में प्रसिद्ध है।
क्षत्रिय नृत्य-
चरी नृत्य-
- चरी नृत्य किशनगढ़ अजमेर में गुर्जर जाति की महिलाओं द्वारा विभिन्न मांगलिक अवसर पर किया जाता है। इस नृत्य में महिलाएं सिर पर सात चरियां (पीतल का घड़ा) रखकर नृत्य करती है। सबसे ऊपर की चरी में काकड़े (कपास) के बीज डालकर उसमें आग जलाई जाती है।
- इस नृत्य में ढ़ोल, थाली और बाकियां वाद्य यंत्र का प्रयोग किया जाता है। पारंपरिक तौर पर यह नृत्य देवों के आहान के लिए किया जाता है इसलिए इसे स्वागत नृत्य के रूप में भी जाना जाता है।
- फलकूबाई इस नृत्य की प्रसिद्ध नृत्यांगना है।
अग्नि नृत्य-
- अग्नि नृत्य जसनाथी सम्प्रदाय के जाट जाति के लोगों द्वारा जलते हुए आग के अंगारों पर किया जाता है। इसका उद्गम बीकानेर जिले के कतरियासर गांव में हुआ था।
- इस नृत्य में नृतक अंगारों पर मतीरा फोड़ना, हल जोतना, राग व फाग के साथ आदि क्रियाएं सम्पन्न करते है।
- इस नृत्य में नृतक 4” X 7” के घेरे में ढेर सारी लकड़ियां जलाकर धूणा करते है जिसके चारों ओर पानी छिड़का जाता है। नृतक पहले तेजी के साथ धूणा की परिक्रमा करते है और फिर गुरू की आज्ञा लेकर फतह-फतह (अर्थात् विजय हो, विजय हो) कहते हुए अंगारों पर प्रवेश करते है। इस नृत्य में पुरूष भाग लेते है। वे सिर पर पगड़ी, धोती, कुर्ता और पांव में कड़ा पहनते है।
- अग्नि नृत्य अंगारों के ढेर पर होने के कारण धूणा नृत्य भी कहते है।
- गायक मण्डली में से कोई भी एक व्यक्ति नगाड़े को बजाता है, जिसमें ओम ध्वनी सुनाई देती है।
यह बीकानेर के कतरियासर गांव के अतिरिक्त मामलू, ड़िकमदेसर गांव में तथा चूरू व नागौर में भी किया जाता है।
शेखावटी का गीदड नृत्य-
- यह होली के अवसर पर पुरूषों द्वारा किया जाने वाला शेखावटी क्षेत्र का प्रसिद्ध नृत्य है। जो प्रहलाद स्थापना (डांडा रोपना) के बाद होली तक खुले मैदान में सामुहिक रूप से किया जाता है। यह एक प्रकार स्वांग नृत्य है जिसमें पुरुष महिलाओं के कपड़े पहनकर सेठ-सेठानी, दुल्हा-दुल्हन, शिव-पार्वती, पठान, पादरी, साधु, शिकारी, बाजीगर, राजा-रानी, योद्धा-पराक्रमी आदि विविध रूप धारण करके नृत्य करते है। यह नृत्य समाज की एकता का सूत्रधार है।
- इस नृत्य के मुख्य वाद्ययंत्र नगाड़ा, ढोल, ढफ व चंग है।
- यह शेखावटी क्षेत्र के लक्ष्मणगढ़, सुजानगढ़, रामगढ़, सीकर, चूरू व झुंझुनू आदि क्षेत्रों में किया जाता है।
यह नृत्य शेखावटी के अलावा बीकानेर में भी किया जाता है।
चंग नृत्य-
- यह शेखावटी में पुरूषों के द्वारा होली के दिनों में वृताकार घेरा बनाकर किया जाता है। घेरे के मध्य में एकत्रित होकर पुरूष धमाल और होली के गीत गाते हुए चंग बजाते हुए नृत्य करते है।
कच्छी घोडी नृत्य-
- कच्छी घोडी नृत्य शेखावटी का व्यावसायिक नृत्य है। इस नृत्य में पुरूष आमने-सामने चार-चार पंक्तियां बनाते है। और ये पंक्तियां तीव्रगति से आगे पीछे बढ़ती रहती है। जो फुल की पंखुड़ियों के खुलने का आभास कराती है इस नृत्य में कलाकार नाचते समय पैटर्न बदलते है।
- इस नृत्य में नृतक झांझ, ड़ेरू, ढ़ोलक एवं बांकियां नामक लोक वाद्ययंत्रों का प्रयोग करते है।
- इस नृत्य में लड़ाई का दृश्य प्रस्तुत करते है। यह एक वीर नृत्य है, जो पुरूषों द्वारा किया जाता है।
डफ नृत्य –
- यह नृत्य बसन्त पंचमी पर किया जाता है। इस नृत्य में मंजीरे वाद्य यंत्र का प्रयोग करते है।
ढोल नृत्य (जालौर)-
- यह नृत्य विवाह के अवसर पर माली, ढ़ोली, सरगड़ा जाति के पुरूषों के द्वारा किया जाता है। जो थांकना शैली से शुरू किया जाता है (थांकना का शाब्दिक अर्थ- नृतकों में जोश भरना होता है) मुखिया थांकना शैली में ढ़ोल बजाता है। उसके साथ 4-5 अन्य भी ढ़ोल बजाने वाले भी होते है थांकना समाप्त होने पर नृतक मुँह में तलवार लेकर, कोई हाथों मे डंडे लेकर, कोई रुमाल लटकाकर नृत्य प्रस्तुत करते है।
चकरी नृत्य (हाड़ौती)-
- यह नृत्य कंजर जनजाति की कुंवारी कन्याओं के द्वारा विभिन्न मांगलिक अवसरों पर तथा विशेषकर विवाह के अवसर पर किया जाता है। इसमें नृर्तकी चक्कर पर चक्कर लगाकर नाचती है। पूरे नृत्य में ये बालाऐं लट्टू की तरह घूर्णन करती है इसी कारण इस नृत्य को चकरी नृत्य कहा जाता है इस नृत्य में ढ़फ, मंजीरा तथा नगाड़े वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया जाता है।
यह कंजर जनजाति के अतिरिक्त कालबेलिया एवं बेड़ियां जनजाति की कुंवारी लड़कियाँ के द्वारा भी किया जाता है।
धाकड़ नृत्य-
- यह हाड़ौती क्षेत्र में कंजर जनजाति के पुरूषों द्वारा किया जाता है। इस नृत्य में पुरूष ढाल, फरसा, बरछी हाथों में लेकर नृत्य करते है। इस नृत्य में युद्ध की समस्त कलाओं का प्रदर्शन किया जाता है।
नाहर नृत्य (भीलवाडा)-
- यह मांड़लगढ़ भीलवाड़ा का प्रसिद्ध नृत्य है। इस नृत्य की शुरूआत मुगल सम्राट शाहजहां के काल में हुई थी। इस नृत्य के अन्तर्गत पुरूष अपने शरीर पर रूई लगाकर तथा सींग धारण करके स्वांग रचते है इस नृत्य को एक सींग वाले शेरों का नृत्य भी कहते है। जो होली के 13 दिन बाद आयोजित किया जाता है।
घुड़ला नृत्य (जोधपुर)-
- घुड़ला नृत्य में कन्याऐं सिर पर घुड़ला (छिद्रित मटके में दीपक जलाकर) रखकर घर-घर जाकर नृत्य करती हुई गीत गाती हुई घुड़ले के लिए तेल या घी मांगती है। यह प्रतिवर्ष चैत्र माह में गणगौर के अवसर पर किया जाता है। जिसमें गणगौर पूजा गण शिव/ईसर व गौर पार्वती की पूजा होती है। इस नृत्य में जयपुर के मणि गांगुली व उदयपुर के देवीलाल सामर अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कलाकर है।
- घुड़ला नृत्य को राजस्थान संगीत नाटक अकादमी ‘‘रूपायन संस्थान बोरूदा जोधपुर के पूर्व अध्यक्ष कमल कोठारी ने राष्ट्रीय मंच प्रदान किया था।
- यह नृत्य मारवाड़ के राजा राव सातलदेव की याद में गणगौर अवसर पर किया जाता है।
बम नृत्य (भरतपुर)-
- यह राजस्थान के पूर्वी भाग भरतपुर, अलवर में नई फसल (फाल्गुन) के आगमन के तहत पुरूषों द्वारा किया जाता है। इस नृत्य में एक बडे़ नगाडे़ का प्रयोग किया जाता है जिसे बम कहते है बम की धून पर नाचने वाले व्यक्तियों को बमरसिया कहते है।
बिंदौरी नृत्य-
- यह झालावाड़ का प्रसिद्ध नृत्य है। जो मुख्य रूप से होली व विवाह के अवसर पर किया जाता है।
डांग नृत्य (राजसमंद)-
- यह नाथद्वारा राजसमन्द का प्रसिद्ध नृत्य है। नाथद्वारा (सिहाड़ग्राम) में श्रीनाथ जी की आराधना में होली के अवसर पर किया जाता है। जिसमें महिला व पुरूष दोनों भाग लेते है।
चरवा नृत्य-
- मारवाड़ क्षेत्र में माली समाज की महिलाओं द्वारा किया जाता है।
डांडिया नृत्य-
- मारवाड़ का प्रसिद्ध नृत्य है। यह नृत्य होली के अवसर पर पुरूषों द्वारा हाथों में डंडे लेकर किया जाता है। इस नृत्य में गैर व गीदड नृत्य की समानता झलकती है। नृतक फाल्गुन की शीतल चांदनी की संगोष्ठी में मैदान में एक नगाड़ा लेकर बैठ जाता है तथा बीच में शहनाई वादक बैठ जाता है। पुरुष गीत गाते हुए हाथ डांडिया लेकर नृत्य की प्रस्तुति करते है। इनकी प्रमुख पोशाक बागा और पगड़ी होती है।
पेजण नृत्य-
- पेजण नृत्य मुख्य रूप से बांगड़ क्षेत्र डूंगरपुर- बांसवाड़ा में दीपावली के अवसर पर पुरूषों द्वारा किया जाता है।
चरकूला नृत्य-
- मूलतः उत्तरप्रदेश का लोक नृत्य है, जो राजस्थान के भरतपुर जिले में किया जाता है।
सुकर नृत्य-
- यह मेवाड़ क्षेत्र में आदिवासियों के द्वारा सुकर लोक देवता की स्मृति में किया जाता है।
सामाजिक व धार्मिक नृत्य
घूमर-
- घूमर राजस्थान की पांरपरिक व सर्वाधिक लोकप्रिय नृत्य शैली है, इसे विश्व के सर्वोत्कृष्ट 10 स्थानों में चौथा स्थान मिला है एक Internation Online Travel Portal ने दुनिया के सभी नृत्यों को विभिन्न मापदण्डों में परखते हुए घूमर को चौथा स्थान दिया है। इन 10 स्थानों में भारत का यह एकमात्र नृत्य है। पहले स्थान पर हवाई, दूसरे स्थान पर जापान का बोन ओड़ोरी और तीसरे स्थान पर आयरलैण्ड़ का नृत्य रहा है।
- घूमर राजस्थान के लोक नृत्यों की आत्मा/समस्त नृत्यों का सिरमौर/सामन्ती नृत्य तथा रजवाड़ों का लोक नृत्य कहलाता है। जो राजस्थान के विभिन्न मांगलिक अवसरों पर मुख्यतः गणगौर त्यौहार पर किया जाता है। यह राजस्थान का लोक नृत्य है।
- मुगलकालीन युग में महिलाऐं पुरूषों से पर्दा करती थी। लिहाजा यह नृत्य मुंह ढककर होता है। इस नृत्य में महिलाऐं एक गोल घेरे में चक्कर लगाती हुई नृत्य करती है। लहंगे के घेरे को घुम्म कहते है इसीलिए इसे घूमर नृत्य कहा जाता है।
गरबा नृत्य –
- गरबा गुजरात का एक सुप्रसिद्ध धार्मिक नृत्य है जो राजस्थान के बांगड़ क्षेत्र (डूंगरपुर व बांसवाड़ा) में नवरात्री के नौ दिनों के वार्षिक उत्सव के दौरान 50 से 100 महिलाओं के समूह द्वारा देवी अम्बा माता के सम्मान में किया जाता है। इस नृत्य में पणिहारी, नव-वधू की भावुकता का चित्रण किया गया है।
- महिलाऐं गोल चक्कर में घुमती हुई हाथों में तालियां और कभी-कभी अंगुलियों से चुटकी बजाती है इस नृत्य के साथ देवी की स्तुती में गीत गाती हुई नृत्य करती है।
राजस्थान के लोक नृत्य-
भवाई नृत्य | उदयपुर |
तेरहताली | रूणेचा |
मछली | बाड़मेर |
अग्नि नृत्य | कतरियासर, बीकानेर |
ढ़ोल नृत्य | जालौर |
बम नृत्य | भरतपुर |
चरी नृत्य | किशनगढ़, अजमेर |
चकरी नृत्य | कोटा |
घुड़ला नृत्य | जोधपुर |
थाली, डांडिया | जोधपुर |
मावलिया नृत्य | उदयपुर |
रणबाजा, रतंबई | अलवर |
बिन्दौरी नृत्य | झालावाड़ |
नाहर नृत्य | माण्ड़लगढ़, भीलवाड़ा |
गीदड, चंग, कच्छी घोड़ी नृत्य | शेखावटी |
पेजण नृत्य | बागड़ क्षेत्र |
वालर नृत्य | सिरोही |
गैर नृत्य | मेवाड़, बाड़मेर |
सुगनी नृत्य | पाली |
हिंड़ौला नृत्य | जैसलमेर |
मोहली नृत्य | प्रतापगढ़ |
खारी नृत्य | अलवर |
चरकुला नृत्य | भरतपुर |
हुरंगा नृत्य | भरतपुर |
झांझी नृत्य | जोधपुर |
भारत के लोक नृत्य-
बिहू नृत्य | असम |
गरबा नृत्य | गुजरात |
घूमर नृत्य | राजस्थान |
भांगड़ा | पंजाब |
छऊ | झारखण्ड़ |
अरूणाचल | मुखोटा |
रासलीला | उत्तर प्रदेश |
चोंग | नागालैण्ड़ |
मंड़ी | गोवा |
धमाल | हिमाचल |
गाड़ी | छत्तीसगढ़ |
तमाशा | महाराष्ट्र |
पाण्डव नृत्य | उत्तराखण्ड़ |
करमा | झारखण्ड़ |